अमरत्व


कैसा हो कि हम अगर तकनीकी रूप से अमर हो जायें?

अबूझ को बूझने की प्रक्रिया में, संगठित होते समाजों की बैक बोन, धर्म के रूप में स्थापित हुई थी, उन्होंने कुदरती घटनाओं के पीछे ईश्वर के अस्तित्व की अवधारणा दी, शरीर को चलायमान रखने वाले कारक के रूप में आत्मा का कांसेप्ट खड़ा किया और इसे लेकर तरह-तरह के लुभावने-डरावने मिथक और कहानियां खड़ी की— लेकिन क्या वाक़ई आत्मा जैसा कुछ होता है?

अगर आपका जवाब हां में है तो खुद से पूछिये कि आपके शरीर में कितनी आत्माएं रहती हैं? आत्मा को मान्यता देंगे तो फिर आपको यह भी मानना पड़ेगा कि आपके शरीर में कोई एक आत्मा नहीं है, बल्कि हर अंग की अपनी आत्मा है और एक शरीर करोड़ों आत्माओं का घर होता है।

थोड़ा दिमाग लगा कर सोचिये न, कि आत्मा मतलब आप न? शरीर में क्या है जो बदल नहीं सकता— ब्लड की कमी हो जाये तो दूसरे का ब्लड ले लेते, किडनी खराब हो जायें, दूसरे की ले लेते, लीवर खराब हो जाये तो दूसरे का ले लेते, हार्ट खराब हो जाये तो दूसरे का ले लेते, ब्रेन बचा है, वह भी आगे ट्रांसप्लांट होने लगेगा.. ऐसे में आत्मा कहाँ है, हर अंग तो अपने मूल शरीर से अलग हो कर दूसरे शरीर में काम कर रहा है।
हर सेल के पास तो अपनी सेपरेट आत्मा है। इत्तेफाक ऐसा भी हो सकता है कि आपके पैदाईश के वक्त मिले सारे मुख्य अंग बदल गये लेकिन आप अब भी वहीं हैं— तो असल आत्मा कहाँ है? ऐसी उलझन पर आपका जवाब दिमाग पर थमेगा कि असल में आत्मा दिमाग में है— क्योंकि अगर आप अशफाक हैं तो भले एक-एक करके आपके सारे अंग बदल जायें, आप अशफाक ही रहेंगे लेकिन जैसे ही दिमाग बदलेगा— आप अशफाक नहीं रहेंगे।

तब जिंदा रहा तो जिस शरीर में आपका दिमाग जायेगा, अशफाक अपने आपको वहीं महसूस करेंगे और अगर डेड हो गया तो उस शरीर में जिस किसी का दिमाग डाला जायेगा, अशफाक के शरीर में वही शख्स होगा, अशफाक नहीं— भले अशफाक के सारे बाकी अंग वही क्यों न हों, जो पैदाईश के वक्त से हैं। एक दिमाग बदलते ही पूरा इंसान बदल जायेगा— क्यों? क्योंकि दिमाग ही वह सेंटर प्वाईंट है, जहां चेतना होती है और चेतना क्या है?
आत्मबोध, यानि खुद के होने का अहसास.. तो क्या इस दिमाग़ को ही आत्मा कहा जा सकता है? ज़ाहिर है कि नहीं— क्योंकि अपने आप में दिमाग खाली डिब्बा है, असल वैल्यू इसमें भरी इनफार्मेशन की है। वह इनफार्मेशन जो जीरो से, उस वक्त से शुरु होती है जब हम होश संभालते हैं। इस इनफार्मेशन के बगैर आप कुछ नहीं— जो भी है यही है, आत्मा, कांशसनेस, आत्मबोध।

भले अभी पॉसिबल न हो— पर मेरी ही एक कहानी #मिरोव में (जिसका जिक्र पिछली पोस्ट में भी था) एक बायोइंजीनियरिंग कंपनी है, दो हजार बत्तीस की टाईमलाईन के हिसाब से वह थ्रीडी प्रिंटर टाईप टेक्नीक (भविष्य में यह भी आम होनी तय है) से एडवांस ह्यूमन बाॅडी बनाना शुरु करती है। मतलब आदमी मरता क्यों है.. इसका सिंपल जवाब कोशिका विभाजन में है, जिसकी एक हेफ्लिक लिमिट होती है, जिसे क्रास करते ही शरीर बूढ़ा, जर्जर और मृत हो जाता है।

अगर किसी टेक्नीक से इस विभाजन की लिमिट बढ़ा दी जाये, या असीमित कर दी जाये तो शरीर ज्यादा लंबा भी चल सकता है। इसी थ्योरी पर वह ज्यादा बेहतर कैटिगरी के इंसान लैब में बनाती है जिसे मिरोव कहा जाता है। वह ऐसे शरीर तो बना लेती है लेकिन किडनी, लीवर, हार्ट, ब्रेन जैसे अंग उतने कारगर नहीं बना पाती तो न्यूयार्क जैसे शहर में ऑपरेट करने के कारण लावारिस लाशों से यह अंग लेकर मिरोव में ट्रांसप्लांट कर देती है। फिर वह कोई रेडीमेड मेमोरी या किसी जिंदा इंसान की मेमोरी एक्सट्रेक्ट करके उसमें इम्प्लांट कर देती है और वह मिरोव फिर खुद को वही इंसान समझने लगता है।
वह दो तरह के मिरोव बनाती है, एक जो किसी के क्लोन होते हैं और जिनका परपज मेन मालिक के डैमेज अंग का रिप्लेसमेंट होता है, तो दूसरा यूनीक आईडी होता है, यानि जो किसी की काॅपी न हो। अब उन यूनीक मिरोव के कई तरह के प्रयोग वे मेमोरी इम्प्लांटेशन के जरिये करते हैं। सपोज एक एक्सपेरिमेंट के तहत वे हिमालयन रीजन से चार सौ साल पुरानी मगर सुरक्षित लाश की मेमोरी एक्सट्रेक्ट करके एक मिरोव में डालते हैं जो वर्क कर जाती है और उसके जरिये चार सौ साल पहले की एक सनसनीखेज दास्तान का रहस्य खुलता है।

यहाँ कहानी से हट के दो प्वाइंट समझिये— कि उस कंपनी की सर्विस अफोर्ड करने लायक लोग मिरोव प्रोग्राम का दो तरह से यूज़ कर सकते हैं। अपना युवावस्था का क्लोन बनवा के अपनी मेमोरी उसमें इम्प्लांट करवा के उस नये जीवन को उसी आत्मबोध के साथ जी सकते हैं, एक बेहतर और ज्यादा चलने वाले शरीर में—

जहां वक्त के साथ रिटायर होता हर अंग बदलता चला जायेगा, यहाँ तक कि दिमाग भी और वह मेमोरी आगे बढ़ते हुए उसी आत्मबोध, चेतना और इतिहास को कैरी करते रहेगी। पीछे जो अंग बेकार हुए, नष्ट कर दिये गये। जो ब्रेन निकाला गया, इनफार्मेशन निकाल के उसे नष्ट कर दिया। सारी वैल्यू उस इन्फार्मेशन की ही है, दिमाग़ की कोई वैल्यू नहीं।
इस सर्विस को अफोर्ड करने लायक बंदे के पास दूसरा ऑप्शन यह भी है वह अपनी शक्ल और बाॅडी से संतुष्ट न हो तो यूनीक आईडी वाला मिरोव बनवा ले और फिर आगे का जीवन उस शरीर में जिये… या चाहे तो जब इस शरीर में बूढ़ा हो जाये तो कोई दूसरा युवा शरीर (बिकने के लिये गरीब और ज़रूरतमंद हर जगह मिल जायेंगे) खरीद ले और उसकी मेमोरी डिलीट करवा के अपनी मेमोरी उसमें इम्प्लांट करवा ले और पीछे अपने बेकार शरीर को नष्ट करवा दे।

जिस्म देने वाले युवा का तो कुछ जाना नहीं, गरीबी से निकल कर अमीरी में पहुंच जायेगा। जायेगा क्या— सिर्फ उसके दिमाग में भरी वह इन्फार्मेशन, जो बचपन से तब तक बनी उसकी मेमोरी थी। यही मेमोरी भर वह था, उसकी चेतना थी, उसका आत्मबोध था.. ध्यान दीजिये कि टेक्निकली उसे मारा नहीं जायेगा, बल्कि वह शरीर पहले की तरह ही जिंदा रहेगा लेकिन हकीकत में वह मर चुकेगा और उसकी जगह उसके शरीर में कोई सक्षम अमीर जी रहा होगा, जो ऐसे ही हर बीस पच्चीस साल में शरीर बदलते हमेशा जिंदा रहेगा।

दोनों ही कंडीशन में सक्षम लोगों के पास अमर जीवन होगा— मौत जैसी कोई कंडीशन ही नहीं। मजे की बात यह है कि सेम मेमोरी अगर दस अलग-अलग लोगों में प्लांट कर दी जाये तो उनमें से हर कोई खुद को वही ओरिजनल शख़्सियत समझेगा, जैसे मेरी "मिरोव" में दो अलग लोग सेम टाईम में एक ही कैरेक्टर को जी रहे होते हैं और इतना ही नहीं, यह मेमोरी इम्प्लांटेशन इंसान का जेंडर भी चेंज कर सकता है जैसे इसी कहानी में एक लड़की, ख़ुद को मर्द के शरीर में जी रही होती है तो वहीं एक मर्द ख़ुद को एक नारी शरीर में जी रहा होता है। इस तरह के कई खेल इस इम्प्लांटेशन के ज़रिये खेले जा सकते हैं— जिनमें चार-पांच तरह के उदाहरण मैंने कहानी में ही दिये हैं।

इसी सिलसिले को वेबसीरीज "अपलोड" में वन स्टेप अहेड दिखाया गया है कि कुछ कंपनीज अपने वर्चुअल वर्ल्ड (स्वर्ग टाईप) खड़े कर देती हैं जहां कस्टमर जब रियल वर्ल्ड में अपनी लाईफ जी चुके (किसी भी एज में), तो वह या उसके परिजन उसके लिये ऑफ्टरलाईफ खरीद सकते हैं। यानि उस वयक्ति की मेमोरी एक्सट्रैक्ट करके, अपने बनाये स्वर्ग सरीखे वर्चुअल वर्ल्ड में उसके लिये बने अवतार में ट्रांसफर कर दी जाती हैं जहां जब तक पीछे से रीचार्ज होता रहेगा

वह अपने वर्चुअल अवतार के रूप में हमेशा आगे की जिंदगी का लुत्फ उठाता रहेगा। वहां हर तरह की लग्जरियस सर्विसेज हैं, जिनके अलग से बिल पे करने होते हैं। वह वहीं से सीधे रियल वर्ल्ड में अपने अजीजों से कम्यूनिकेशन कर सकता है और उन्हें बिल पे करने के लिये मना सकता है। मरने के बाद भी उस अवतार के जरिये मानसिक तसल्ली के लिये (अपनी या पीछे छूटे पर्सन की) उनसे बतिया सकता है। उनसे फेस टु फेस बात कर सकता है, पार्टनर से सेक्स कर सकता है, झगड़ा भी करना चाहे तो वह भी कर सकते हैं।
सोचिये कैसा लगेगा कि आप अपने मरे हुए परिजन से उसके मरने के बाद भी वहां से बात कर सकते हैं, जहां वह स्वर्ग के कांसेप्ट पर जीवन के मजे ले रहा है, बशर्ते पीछे से आप पेमेंट करते रहें। पेमेंट, प्रीपेड रीचार्ज जैसी होती है, जब नहीं होती तो आपके अवतार को इकानामी क्लास में पहुंचा दिया जाता है जहां आपको कंपनी की तरफ से कुछ काईन्स मिलते हैं, जिनके इस्तेमाल से आप एक जगह बैठे सांस लेते और सोचते महीना गुजार सकते हैं

या फिर बोल बतिया कर, रियल वर्ल्ड के किसी पर्सन से बतिया कर कुछ सेकेंड्स/मिनट्स में खर्च करके बाकी महीने के लिये फ्रीज हो सकते हैं.. यह फर्क समर्थ और असमर्थ के अंतर को बनाये रखने और लोगों को ज्यादा खर्चने को प्रेरित करने के लिये बनाया गया है। अब यह आपकी हैसियत पर डिपेंड करेगा कि आप उस स्वर्ग में मरने के बाद की जिंदगी को कैसे और कितना एंजाय कर सकते हैं।

अब हो सकता है कि यह सुनने में आपको अटपटा लगे, हंसी आये, नामुमकिन लगे लेकिन सच यह है कि यह सब हंड्रेड पर्सेंट मुमकिन है और इस पर काम चल रहा है। सौ-पचास साल के अंदर ही आप यह मेमोरी इम्प्लांटेशन का खेल होते देखेंगे। जिस दिन यह हुआ, इंसान अमरता को छू लेगा। बाकी आप इस पूरे खेल में उस आत्मा को ढूंढिये, जिसे लेकर लंबी-लंबी फंतासी आपको धर्मग्रंथों ने समझाई है। उसकी हैसियत क्या है, उसकी वैल्यू क्या है— आपके शरीर में लगभग सबकुछ रिप्लेसेबल है.. तो ऐसे में किसी आत्मा के लिये शरीर का वह कौन सा कोना बचता है जहां वह अपने मूल शरीर के साथ स्टिक रह सकती है।

नोट: स्पेसिफिक मेमोरी डिलीट करने, एक्सट्रैक्ट करके किसी और को देने, फेक मेमोरी बनाने या मेमोरी इम्प्लांटेशन से सम्बंधित जेसन बोर्न सीरीज, एटर्नल सनशाईन ऑफ द स्पाॅटलेस माइंड, ब्लेड रनर और टोटल रिकाॅल जैसी फिल्में हालिवुड ने ऑलरेडी बना रखी हैं, अगर ज्यादा बेहतर ढंग से इन संभावनाओं को परखना चाहते हैं तो इन फिल्मों को देख सकते हैं।

Written By Ashfaq Ahmad

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