रोज़वेल मेंशन


रोज़वेल मेंशन 

अरुण के लिये वह जगह तो बड़ी अच्छी थी, जहां चारों तरफ हरे-भरे हरियाली से आच्छादित पहाड़ों का मनोरम नजारा था और दूर बर्फ से ढंकी चोटियां ऐसे भ्रम देती थीं जैसे आकाश पर किसी कुशल चित्रकार ने कूची फेर दी हो। मौसम उसके अनुकूल था तो हल्की ठंड से भी कोई शिकायत नहीं थी। यह जगह हिमाचल के ऊपरी इलाके में आती थी जहां पहाड़ों के एतबार से मध्यम आकार की आबादी थी और पर्यटन के नजरिये से यह जगह तेजी से विकसित हो रही थी।

वह एक सिविल इंजीनियर था और अपनी कंपनी के काम से यहां आया था— कंपनी वहां अपना एक प्रोजेक्ट शुरू कर रही थी, जिस सिलसिले में अरुण को दिल्ली से यहां आना पड़ा था और कुछ महीनों के लिये उसे यहीं कयाम करना था।

अब वह किसी तरह ऊना तक ट्रेन और आगे बस के सहारे यहां तक पहुंच तो गया था लेकिन यहां आकर एक समस्या खड़ी हो गई थी। अब यहां आकर एक समस्या खड़ी हो गई थी कि फिलहाल कंपनी की तरफ से उसके रहने का इंतज़ाम नहीं हो पाया था। अपनी तरफ से उन्होंने रोज़वेल मेंशन नाम की जिस जगह का चयन किया था, फर्दर इन्क्वायरी में वह जगह उसके रहने के लिहाज से ठीक नहीं निकली थी तो एक दो दिन उसे किसी तरह खुद के भरोसे गुजारने को कहा गया था कि इस बीच कोई और इंतज़ाम कर लिया जायेगा।
आखिर रोज़वेल मेंशन में क्या दिक्कत थी? यह पूछने पर पता चला कि उस जगह की इमेज ठीक नहीं थी और वह एक हांटेड प्लेस के तौर पर मशहूर है। दिन में तो वह जगह सामान्य ही रहती है लेकिन वहां रात गुजारना खतरनाक हो सकता है। वहां रात को कई तरह के हादसे हो चुके थे और कुछ मौतों के साथ, कुछ लोग पागल तक हो चुके थे। वह जगह शिमला के एक धनी सेठ की थी, जिसका एक लोकल केयरटेकर भी था, जो उसकी देख-रेख करता था। दिन में तो लोग उधर रुकते थे लेकिन रात को अगर वहां सोना होता था तो मेंशन के बाहरी प्रांगण में कैम्प लगा कर ही सोते थे। अंदर सोने में समस्या थी... लेकिन वाकई में वहां रात को क्या होता था, इस बात का पता किसी को नहीं था। कोई बताने वाला ठीक-ठाक हालत में कभी सुबह बरामद ही नहीं हुआ जो कुछ बता सकता।

अब वहां स्टे करके रात बाहर कैम्प में गुजारने का ऑप्शन तो उसके पास भी था लेकिन कंपनी अपनी तरफ से नहीं चाहती थी कि वह उसे ऐसी जगह रहने पर मजबूर करे, तो या उसी तरह रोज़वेल मेंशन में रहने या अपने तौर पर एक दो दिन के लिये कोई इंतज़ाम कर लेने का विकल्प उस पर छोड़ दिया गया था।
वह आधुनिक दौर का वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला युवक था जो इन दकियानूसी बातों से खुद को दूर ही रखता था... इसलिये उसे शायद इस बात से तो फर्क नहीं पड़ता था कि वहां कोई पैरानार्मल एक्टिविटीज होती हैं, लेकिन इस बात का अंदेशा जरूर था कि इन तमाशों की आड़ में वहां कुछ गैरकानूनी गतिविधियां हो रही हो सकती हैं, खामखाह की बहादुरी दिखाने के चक्कर में हो सकता है कि वह उन गतिविधियों का शिकार हो जाये। तो बेहतर यही था कि पहले उस जगह को जांच-परख ले, फिर कोई अंतिम निर्णय ले।

और यही वजह थी कि बैक्पैक पीठ पर लादे और एक बड़ा बैग सीधे हाथ में लटकाये वह आबादी से एकदम बाहर की तरफ स्थित रोज़वेल मेंशन की तरफ बढ़ रहा था।

हरे-भरे पेड़ों के साये में ऊंचाई की तरफ बढ़ते वह यही सोच रहा था कि कहीं और सर खपाने से बेहतर है कि वह रोज़वेल मेंशन में ही डेरा जमाये... अंदर सोते नहीं बनेगा तो बाहर सो जायेगा।

चलते-चलते एक तिराहे पर पहुंच कर उसे थमना पड़ा।

अब यहां से दो रास्ते आगे जाते थे... एक तो समतल ही था जिस पर आगे जा कर बीस-पच्चीस मकानों वाली एक आबादी मौजूद थी जबकि दूसरा और चढ़ाई का था जहां आगे एक मनोरम जगह पर रोज़वेल मेंशन मौजूद था जो अतीत के किसी दौर में शाही लोगों के लिये रेस्ट हाउस हुआ करता था।

तिराहे पर एक चाय का होटल था जहां एक लकड़ी के खोखे में बड़ी उम्र का चायवाला अपने गुटखे-सिग्रेट, चाय-नाश्ते वाले साजो-सामान के साथ मौजूद था तो सामने लकड़ी की दो बेंचें भी मौजूद थीं जिन पर तीन लोग बैठे आपस में गप्पे लड़ा रहे थे। अरुण के पहुंचने पर वे सभी चुप हो कर उसकी तरफ आकर्षित हो गये थे।

अरुण ने हाथ में थमा बैग बेंच के खाली हिस्से पर रखा और पीठ पर टंगा बैग उतारते हुए आसपास का अवलोकन किया... दो पैदल तो दो साईकिल से उस रास्ते पर जा रहे थे जिधर आबादी थी— जबकि जिस रास्ते से वह आया था, उस पर एक महिला सर पर किसी तरह की गठरी लादे चली आ रही थी। उसी तिराहे पर एक बड़ा सा ओक का पेड़ था जिसके नीचे उसे गोल घेर कर एक कच्चा चबूतरा बना दिया गया था।
उस चबूतरे पर एक अजब हाल शख्स कुल्हड़ में चाय लिये बैठा इस तरह बड़बड़ा रहा था जैसे किसी से बातें कर रहा हो जबकि वहां वह अकेला ही था। फिर उसने ऐसे चुटकी बजाई जैसे उंगलियों में दबी सिग्रेट की राख झाड़ रहा हो, और उस हाथ को होंठों से लगा कर ऐसे जोर की सांस खींची, जैसे सिग्रेट का कश लगा रहा हो। हालांकि उसका हाथ या उंगलियां खाली ही थीं। फिर वह दूसरे हाथ में थमे कुल्हड़ को जमीन पर रख कर चबूतरे पर ही उल्टा खड़ा होने की कोशिश करने लगा, लेकिन अपनी कोशिश में कामयाब न रहा और चबूतरे से नीचे गिर कर झुंझलाये अंदाज में शायद गालियां बकने लगा।

अरुण की दिलचस्पी देख वहां बैठे लोग भी उसी तरफ देखने लगे थे और उस शख्स की हरकत पर हंसने लगे थे। अरुण ने निगाहें मोड़ कर कौतहूल से उन्हें देखा।

"पागल है साहब— दिन भर यही सब करता फिरता है।" तीनों में से वह बोला जो उनमें सबसे उम्रदराज और चाय वाले की ही उम्र का था— बाकी दोनों कम उम्र ही थे।

"हम्म।" अरुण ने समझने वाले भाव में सर हिलाते हुंकार भरी और चाय वाले से सम्बोधित होते हुए बोला— "एक चाय तो पिलाना चाचा।"

'जी बाबूजी' की शाब्दिक प्रतिक्रिया के साथ ही वह शख्स अब तक दूध के बर्तन के नीचे हौले-हौले जलते स्टोव में पम्प मारने लग गया और हवा में मौजूद मिट्टी का तेल जलने की गंध कुछ और तेज हो गई। बर्नर से निकलती लपटों ने जोर पकड़ा तो उसने भगोना हटा कर केतली रख दी, जिसमें पहले से चाय मौजूद थी और कुछ भाप छोड़ने के सिग्नल के साथ ही उसने एक कुल्हड़ में चाय उड़ेल कर अरुण की तरफ बढ़ा दी। इस बीच अरुण बेंच पर बैठ कर उसी पागल की तरफ देखता रहा था, जो अब फिर से चबूतरे पर बैठ कर चाय पीने लगा था। दूसरे लोग चुप ही हो गये थे— शायद साहब के सामने बकैती से परहेज कर रहे थे।

कुल्हड़ में पहुंच कर पकी मिट्टी के आगोश में सोंधी हो चुकी चाय के पहले घूंट के साथ उसे वह आया जिसकी तलाश में वह अक्सर उन निम्नस्तरीय होटलों पर चला जाता था, जो डिस्पोजल या शीशे के गिलासों के बजाय कुल्हड़ में चाय देते थे।
तभी फोन बजा तो उसे इस बात की राहत भी मिली कि मोबाईल की शान के मुताबिक अभी तक वह आउट ऑफ कवरेज एरिया नहीं हुआ था। उसने जेब से मोबाइल निकाला तो यामिनी की काॅल थी।

"हां स्वीटहार्ट।" उसने काॅल रिसीव करते हुए कहा— यामिनी उसकी एक साल पुरानी बीवी थी जो अभी तक नई बनी हुई थी।

"पहुंच गये?" उधर से टूटती हुई आवाज आई।

"बस अभी पहुंचा हूं यहां लेकिन अपने ठिकाने पर अभी भी नहीं पहुंचा हूं... मतलब रास्ते में ही हूं।"
खराब नेटवर्क की वजह से इधर से उसे अपनी बात रिपीट करनी पड़ी और उधर से यामिनी को टुकड़ों-टुकड़ों में अपनी बात दोहरानी पड़ी, जिसका सार यह था कि क्या वह जगह ऐसी थी जहां वह कुछ महीनों के लिये रहना प्रफर कर सकती। जवाब में उसने यही कहा कि पहले ठीक से पहुंच कर जगह को समझने तो दो— फिर व्हाट्सअप पर बताता हूं। काॅल कट करके स्क्रीन पर नजर डाली तो नेटवर्क तड़प रहे थे।

"इधर नेटवर्क नहीं रहता क्या?" उसने पास बैठे युवक से पूछा।

"इधर बीएसएनएल का तो रहता है, बाकी बहुत कमजोर रहते... वे उधर आबादी में ठीक रहते हैं।" युवक ने बताया।

"यह रोज़वेल मेंशन किस तरफ पड़ेगा?" उसने फोन वापस जेब के हवाले करके चाय पर फोकस करते हुए पूछा।

"इधर— लेकिन आप क्यों पूछ रहे हैं?" उस युवक के साथ बाकी लोग भी कुछ चौंक कर उसकी तरफ देखने लगे थे।

"क्योंकि कुछ महीनों के लिये मुझे उधर रहना है।" उनके असहज होने को वह महसूस कर सकता था— "लेकिन आप इतना चौंक क्यों रहे हैं?"

कुछ बोलने के बजाय वे आपस में एक दूसरे की सूरतें देखने लगे। चाय वाला भी उसकी तरफ आकर्षित हो गया था और चिंताजनक दृष्टि से उसे देखने लगा।

"अगर घूमने फिरने के लिये आये हैं तो कस्बे में रुकना चाहिये था... इधर तो लड़के लपाड़ी आते हैं कैम्पिंग के लिये। दिन भर रुकते हैं और शाम को कस्बे की तरफ निकल जाते हैं या वहीं बाहर कैम्प लगा लेते हैं। अकेला तो कोई नहीं जाता उधर रुकने।" उनमें से वह बोला जिसने सामने दिखते पागल के बारे में बताया था।

"मैं जिस कंपनी में काम करता हूं, वह इधर एक रिसार्ट बना रही है— उसी की तैयारियों के सिलसिले में आया हूं तो फिलहाल कुछ महीने इधर ही रहना है। अभी अकेला ही हूं लेकिन आगे और भी लोग आयेंगे। बात क्या है?" जानते-बूझते भी और ज्यादा समझने की गरज से उसने पूछा।

"वह जगह ठीक नहीं साहब— रात को मेंशन के अंदर जाने कौन-कौन सी भूतिया हरकतें होती हैं। कोई नहीं जान पाया, बस इतना ही पता है कि अगर कोई रात को अंदर रुक गया तो या सुबह मरा बरामद होगा या ऐसा।" कहने वाले ने सामने खाली कुल्हड़ से चाय सुड़कते पागल की तरफ इशारा किया।
"यह रोज़वेल मेशन में रात को रुका था?" अरुण ने हैरानी से उस पागल को देखा।

"जी— वर्ना यह भी आपकी ही तरह पढ़ा-लिखा शहरी बंदा था जो आपकी ही तरह किसी काम से इधर आया था। मेंशन की तरफ जाते वक्त यह भी यहां चाय पीने रुका था— मैंने मना किया था कि अगर वहां ठहरना ही है तो रात को अंदर के बजाय बाहर ठहरना, लेकिन बाबू पढ़ा-लिखा था, भूत-प्रेत, आत्मा, चुड़ैल वगैरह पर यकीन नहीं करता था तो रात अंदर ही रुका। फिर अगले दिन इसी हालत में बरामद हुआ था।" चाय वाले ने बताया।

"अगर इतनी ही प्राब्लम है उस जगह में तो उसे बंद क्यों नहीं कर देता प्रशासन?" अरुण की भंवें सिकुड़ीं।

"प्रशासन को क्या पड़ी है साहब... ठाकुर साहब चाहें तो बंद कर सकते हैं लेकिन उन्हें भी क्या पड़ी है। लोग आ के रुकते हैं तो इस बहाने उसकी कदर भी होती रहती है, वर्ना तो अब तक उनकी प्रापर्टी खंडहर बन चुकी होती।" साथ बैठे युवक ने बताया।

"कौन ठाकुर साहब?"

"जिनके पुरखों की छोड़ी वह जगह है... पहले कभी पिकनिक, या शिकार या मेहमानों के मनोरंजन के लिये आते रहते थे लेकिन फिर दसियों साल के लिये वह जगह वीरान पड़ी रही, जिस दौरान मौजूदा ठाकुर साहब विलायत में रहते थे। फिर जब वह यहां आ के बसे और इस प्रापर्टी की सुध ली, तब तक वहां जाने कौन सी असुरी शक्तियों का वास हो चुका था कि फिर वहां हादसे होने लगे और मशहूर हो गया कि वह जगह आसेबी है।"

"जब मशहूर ही हो गया तो लोग क्यों रुकते हैं वहां?"

"जगह बड़ी अच्छी है साहब... उधर ऊंचाई के आखिर में थोड़ी मैदानी जगह है, जिसे बाग की तरह संवारा गया है। वहीं एक झील है जिसका हुस्न अलग ही है। फिर वहां जो भी खतरा है, वह रात को मेंशन के अंदर रुकने पर है। दिन में कैसा भी कोई खतरा नहीं और रात के लिये ठाकुर साहब की तरफ से ही दो बड़े कैम्प लगा रखे गये हैं जहां रात गुजारी जा सकती है। तो क्या है न साहब आउटिंग और एडवेंचर के शौकीन लड़के-लड़कियों के ग्रुप आते रहते हैं। शूटिंग वाले भी आते हैं तो ऐसी मुर्दा जगह भी नहीं है। इसका इंतज़ाम एक खेम सिंह नाम के आदमी के हाथ रहता है जो मेंशन का केयर-टेकर है। लोग चाहते हैं तो घरेलू कामकाज के लिये नौकर-नौकरानी का भी इंतज़ाम कर देता है लेकिन वे रात को उधर नहीं रुकते।"
"क्या इसने कभी कुछ नहीं बताया कि रात को मेंशन में इसने क्या झेला था?" कहते हुए अरुण ने गर्दन से उस पागल की तरफ इशारा किया।

"होश में आये तब न बताये— बस दिखता होश में है, लेकिन होता नहीं।" कहने वाले ने तरस खाने वाले भाव से कहा।

एक पल को उसके दिमाग में आया था कि वह उस पागल से बात करे लेकिन उसकी आंखों से होशमंदी के आसार न नजर आते थे तो टाल दिया। चाय पी कर उसने खाली कुल्हड़ वहीं रखे गंदे से डस्टबिन रूपी कनस्तर में डाला और उठ खड़ा हुआ।

"एक सिग्रेट दे दो चाचा और पैसे बताओ।" उसने चाय वाले से सम्बोधित होते हुए कहा।

जो ब्रांड वह पीता था, वह यहां मिलना नहीं था तो जो भी उपलब्ध था, उसी से काम चला लेना था। सिग्रेट लेकर उसने वहीं खड़े-खड़े सुलगाई और एक कश लेते हुए वाॅलेट निकाल कर पैसे देने लगा।
"वहां रुक ही रहे हैं तो रात अंदर मत गुजारिये साहब।" चाय वाले ने चेतावनी भरे अंदाज में कहा।
उसने सहमति में सर हिला दिया— हालांकि अभी इस बारे में उसने कोई निर्णय लिया नहीं था।

पैसे दे कर उसने बैगपैक पीठ पर लादा और बैग उठा कर उस राह चल पड़ा, जिधर वह रोज़वेल मेंशन था। वक्त पांच के आसपास ही हुआ था लेकिन शाम के घिरने के आसार नजर आने लगे थे। वैसे भी पहाड़ों में शामें जल्दी घिरती हैं— एक फिक्र यही थी कि अंधेरे के पांव पसारने से पहले वह मेंशन तक पहुंच जाये।

वैसे पर्यटन के नजरिये से फलती जगहों पर पब्लिक ट्रांसपोर्ट के रूप में कुछ न कुछ साधन मौजूद रहते हैं लेकिन इत्तेफाक था कि उसके लिये कोई इंतज़ाम न हो सका था और वह आधे घंटे की पद यात्रा करके इस तिराहे तक पहुंचा था और पता नहीं अब मेंशन तक पहुंचने में कितने कदम जमीन नापनी पड़ेगी। जिस पगडंडी पर चल रहा था, वह कच्ची होते हुए भी इतनी चौड़ी तो थी कि दो छोटी गाड़ियां क्रास हो सकतीं और उसके दोनों तरफ पेड़ लगे थे जिनकी घनेरी छांव में शाम थोड़ा पहले ही गहरा जाती थी।

चलते-चलते बीस मिनट बाद उसे उस जगह के दर्शन हुए जिसे रोज़वेल मेंशन के नाम से जाना जाता था।

आसपास एक करीने से संवारा गया खूबसूरत बाग था जिसमें कई तरह के पेड़ थे, जानवरों की आकृति में तराशी गई झाड़ियां थीं, आवारा जानवरों से बचाने लायक इंतज़ाम के साथ फूलदार पौधे और झाड़ थे, बीच-बीच में छोटी-छोटी नहर टाईप नालियों से अटैच कई छोटे पूल दिख रहे थे।
हालांकि फव्वारे भी थे लेकिन बंद पड़े थे और इस बाग के पार एक पुराने जमाने की बनी इमारत दिख रही थी, जिसे रंग-रोगन के सहारे नया बनाये रखने की कोशिश की गई थी लेकिन तर्ज से उसके पुराने होने का पता चल रहा था... और इस पूरे इलाके को एक कंटीली बाड़ वाली चारदीवारी से घेरा गया था।

मेंशन के अगले हिस्से में ही दो सफेद रंग की बड़ी सी छोलदारियां दिख रही थीं और उन्हीं के पास खड़ा एक शख्स दिख रहा था, जो जैसे उसी का इंतज़ार कर रहा था।

पास पहुंचने पर वह ज्यादा कायदे से दिखा— दरम्याने कद और इकहरे शरीर वाला साधारण शक्ल-सूरत का आम सा पहाड़ी व्यक्ति था जिसने गर्म पजामे और शर्ट के रूप में कपड़े भी साधारण ही पहन रखे थे... यह मेंशन का वही केयरटेकर खेम सिंह था।

"क्या साहब— इतनी देर लगा दी। मैं निकलने ही वाला था।" वह अरुण के नजदीक पहुंचते ही शिकायत भरे स्वर में बोला।

"कोई सवारी ही न मिली जो जल्दी ले आती... क्या करता भई? घंटे भर से ऊपर हो गया पैदल चलते।" अरुण ने मुंह बनाते हुए कहा।

"खैर, अब आ गये हैं तो मैं चलता हूं साहब... यहां बैठने लेटने का सब इंतज़ाम बाहर ही मौजूद है। मुझे लगा था कि आपको खाने की जरूरत होगी तो अंदर किचन में बना के रख दिया है। यह रही चाबी... यह मेन चाबी है, अंदर चार बेडरूम हैं और सभी के लिये यह एक मास्टर-की है। आप चाहें तो नहा-धो कर फ्रेश हो लीजिये— पानी गर्म किया था जो शायद अब तक आधा ठंडा हो चुका हो। फिर खा-पी कर बाहर आ जाइयेगा। यहां इस कैम्प में आपके सोने का इंतज़ाम कर दिया है। किसी नौकर की जरूरत हो तो बता दीजिये, कल अरेंज कर देंगे और स्टे के हिसाब से जो राशन लगे, बता दीजियेगा तो कल ला देंगे।" खेम सिंह ने मशीनी भाव से जैसे रटे-रटाये शब्द दोहराये।

"वैसे यहां ही क्यों सोना है— अंदर क्यों नहीं सो सकता?" अरुण ने उसकी आंखों में झांका।

"आपको पता नहीं?" उसकी आंखों में आश्चर्य उतर आया।

"क्या?" अरुण ने भंवें उचकाईं।

"मम-मेरा मतलब है कि जो रोज़वेल मेंशन को लेकर बातें होती हैं। मुझे सच में नहीं पता कि वाकई ऐसा कुछ है या नहीं पर अगर बात डर या खतरे की है तो रिस्क क्यों उठाया जाये? इसीलिये ठाकुर साहब ने बाहर यह इंतज़ाम करवा रखा है... यहां कोई खतरा नहीं है किसी भी तरह का। आप आराम से सोइये रात को। मेंशन के अंदर भी रात गहराने तक तो कोई खतरा नहीं है... आप आराम से खा-पी कर बाहर सोने आ सकते हैं।" खेम सिंह ने कुछ अटकते और कुछ निगाहें चुराते बताया।

"और रात गहराने के बाद क्या खतरा है?" अरुण ने उसे घूरा।

"वव-वह... लोग अफवाहें उड़ाते हैं कि यहां असुरी शक्तियां वास करती हैं जो रात होने के साथ जाग जाती हैं— ऐसे में अंदर रुकना ठीक नहीं।" उसने थूक गटकने के साथ बताया।

"अफवाह ही हैं न... सच्चाई तो नहीं है। फिर क्यों डरना— मैं तो अंदर ही सोऊंगा।" अरुण ने लापरवाही से कहा।

"क्या फायदा रिस्क लेने का साहब— बेवजह डर की वजह से नींद ही खराब हो सकती है।" उसके चेहरे पर भय की रेखायें फैल गईं।

"देखा जायेगा।" अरुण ने कंधे उचकाये।

"आप अकेले ही हैं— मुझे तो बताया गया था कि कई लोग आने वाले हैं।" उसने फिर अटकते हुए पूछा।

"हां, लेकिन फिलहाल तो मैं अकेला ही आया हूं।"

"तो मैं जाऊं साहब।"

"हां जाओ... सुबह टाईम पर आ जाना, मुझे जरूरत पड़ेगी कई चीजों की।"

"ठीक है— लेकिन एक रिक्वेस्ट है साहब। बाहर ही सोइयेगा... हमें सच में नहीं पता कि रात में मेंशन के अंदर क्या होता है लेकिन कुछ रात अंदर गुजारने की जिद पर अड़े लोगों के साथ हादसे हो चुके हैं तो आपको मना कर रहा हूं कि आप बेजा जिद न पालें।" उसने जाते-जाते मुड़ कर दबे स्वर में कहा।

"ठीक है यार— अब जाओ भी।" अरुण ने उक्ताये भाव से कहा और इमारत की तरफ बढ़ लिया।
कुछ पल खेम सिंह वहीं खड़ा चिंतित दृष्टि से उसकी पीठ देखता रहा, फिर अफसोस में सर हिलाते वापस मुड़ गया।

अरुण इमारत के मुख्य दरवाजे को खोल कर अंदर आ गया।

अभी बाहर सूरज भले किसी पहाड़ के पीछे पर्दा कर गया हो मगर देखने लायक पर्याप्त रोशनी थी तो उसने सामान एक तरफ डालते इधर-उधर दिखते स्विच बोर्ड पर उंगलियां चलाते बत्तियां जला ली थीं कि अंधेरा गहराये भी तो माहौल में फर्क न पड़े। फिर अंदर के बैठके, हाॅल से गुजर कर पीछे आ गया।

बाहर अभी देखने लायक रोशनी थी तो देख सकता था कि मेंशन के फ्रंट की तरफ भले काफी चौड़ाई में संवरा हुआ बाग हो, लेकिन दायें-बायें भी उसी का सिलसिला था, जिसकी चौड़ाई कम थी और वह पीछे घसियाले मैदान की तरफ खत्म हो रहा था जहां दो तो बड़े आखरोट के पेड़ थे और कुछ ढरान उतर के एक प्यालेनुमा झील थी जिसमें एकदम साफ पानी भरा हुआ था। उसके एक सिरे पर कुछ फूल भी खिले दिख रहे थे तो बीच में कुछ बत्तखें भी तैरती दिख रही थीं। फिर दूर एक हरियाले पहाड़ की उतरती ढलान दिख रही थी और भले वहां से दिख न रही हो पर अंदाजा लगाया जा सकता था कि इस जगह और उस पहाड़ के बीच खाई होनी चाहिये थी।

इसमें कोई शक नहीं कि काफी मनमोहक जगह थी और आउटिंग के परपज से किसी को भी पसंद आने वाली जगह थी और शायद यही वजह थी कि भूत-प्रेत जैसी नकारात्मक बातों के फैलने के बावजूद इस जगह का क्रेज बना हुआ था।
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नहा कर, किचन में मौजूद खाना खा कर और पूरी तरह दिन की गतिविधियों से निपट कर वह वहीं एक बेडरूम में आ लेटा था।

रोज़वेल मेंशन में कदम रखे उसे तीन घंटे हो चुके थे लेकिन इस बीच एक अकेला क्षण भी ऐसा नहीं गुजरा था कि उसे यह लगा होता कि यहां रुकना ठीक नहीं। सबकुछ सामान्य ही था। मेंशन की बाहरी बनावट भले पुरातन कालीन थी लेकिन अंदर से उसे नये जमाने की तर्ज पर काफी संवारा गया था और नये डिजाइन के फर्नीचर, सजावट और पेंट वगैरह से बिलकुल नहीं कहा जा सकता था कि वह भवन सौ साल से ज्यादा पुराना था।

दो बेडरूम नीचे थे और दो ऊपर थे, बाकी ड्राइंग रूम, डायनिंग रूम, हाॅल, स्टोर वगैरह थे लेकिन वह ऊपर नहीं गया था। अब पिछले एक घंटे से बेड पर लेटा फोन पर यामिनी के साथ व्हाट्सअप पर अटक-अटक के चलते नेट के साथ बात कर रहा था। नेटवर्क टूटने की वजह से वायस काॅलिंग की दो कोशिशें नाकाम रही थीं तो बातचीत के लिये यही तरीका बचता था। यह भी था कि खाना एक चोट रह जाये लेकिन बातचीत नहीं रहनी चाहिये क्योंकि बिना बात किये तो न उधर उसे नींद आनी थी और न इधर अरुण को।

वह कोई जिद्दी स्वभाव का नहीं था कि जबर्दस्ती का नायकवाद दिखाने के चक्कर में पड़ जाये कि सबने मना किया है रात को अंदर रुकने से, तो वह जरूर ही अंदर रुकेगा— अंदर घुसते वक्त दिमाग में यही था कि नहा धो कर, खा पी कर, फाईनली वह रात बाहर कैम्प में ही गुजारेगा।

ऐसा नहीं था कि इसके पीछे किसी भूत-प्रेत जैसे कारण को वह तवज्जो दे रहा हो, बल्कि खुद को किसी उलझन में न फंसाने की इच्छा ही मुख्य वजह थी क्योंकि वैज्ञानिक सोच का होने के चलते ऐसी बकवास पर तो कभी कान उसने दिये न थे, बस यही था कि अक्सर लोग अपनी गैरकानूनी गतिविधियों को परवान चढ़ाने और सबकी नजर से बचाने के लिये इन सब चीजों का इस्तेमाल करते हैं... तो अगर रोज़वेल मेंशन में भी ऐसा ही कुछ हो रहा था तो कम से कम वह उन तमाशों में इनवाॅल्व होने से खुद को बचा सके।

पर यहां इतने वक्त में चलते-फिरते उसे ऐसा कुछ लगा नहीं कि कुछ छुपे हुए लोग यह षटराग फैला कर इस जगह का कोई गैरकानूनी इस्तेमाल कर रहे हो सकते हैं— तो उसकी यह झिझक भी निकल गई थी कि वह यहां नहीं सो सकता। आखिरी बात दिमाग में यही थी कि यामिनी से बात करते जब नींद का अहसास होने लगेगा तो बाहर जा कर कैम्प में सो जायेगा। यह बिस्तर पर पड़े-पड़े शरीर में पैदा हुई एक तरह की काहिली ही तो थी, वर्ना जो वह फोन पर लिख-लिख के बातें कर रहा था, वह बातें तो बाहर कैम्प में लेट कर भी हो सकती थीं।

यूं ही बात करते-करते ग्यारह बज गये और शाम को पदयात्रा के कारण शरीर में आई थकन दिमाग को नींद की तरफ ठेलने लगी। उसने फाईनली यामिनी को 'बाय' कहा और फोन उंगलियों से फिसल जाने दिया।

मन में आया कि उठ कर सोने के लिये बाहर चला जाये लेकिन नींद का गलबा ऐसा था कि वैसे ही शिथिल पड़े-पड़े, 'अभी उठता हूं' सोचते हुए भी होशमंदी का झरोखा बंद हो गया और दिमाग सीधे नींद की शरण में पहुंच गया।

कब तक नींद की कैफियत में रहा— यह अंदाजा होना मुश्किल था लेकिन फिर कुछ आवाज़ों ने नींद में ऐसा खलल डाला कि नींद की वादी में निर्बाध चलते खुशनुमा ख्वाब में एक डिस्टर्बेंस पैदा हो गया, जिसने अंततः उसके दिमाग को नींद की वादी से बाहर खींच लिया।

दिमाग धीरे-धीरे उन आवाज़ों पर एकाग्र हुआ तो मानस-पटल पर चलते दृश्य सिमटते चले गये और एक अंधेरा उसकी जगह लेता गया, जहां कुछ आवाज़ें उसे अपनी तरफ आकर्षित कर रही थीं। उन आवाज़ों का दामन थामें वह नींद की जकड़न को तोड़ता बेदार हो गया और सनसनाते दिमाग को काबू में करने की कोशिश करते सोचने लगा कि माजरा क्या था?

लेकिन समझ में आने लायक कुछ था ही नहीं... अब कोई आवाज़ नहीं थी। वह तन्हा उस बेडरूम में पड़ा था और ट्यूबलाईट वैसे ही रोशन थी, जैसी सोते वक्त छोड़ी थी। एकदम से तो कोई अनपेक्षित हरकत न समझ में आई, जो उसके जागने का कारण बनी होती।

उसने सर झटकते सोचा कि कहीं न कहीं उसके मन में पैदा हुई यह फांस, कि लोगों ने उसे अंदर सोने से रोका था— ही अवचेतन में फंसी रह गई होगी, जिसने उसे इस तरह जगा दिया।

क्या अब उसे यहां से निकल कर बाहर जाना चाहिये?

उसके दिल ने नकारात्मक प्रतिक्रिया दी... उसने पास पड़े मोबाईल को उठा कर टाईम देखा तो तीन बज रहे थे। अगर अब तक वह सुकून से सोता रहा था तो बाकी बची रात भी सोता रह सकता था— फिर बाहर जाने की क्या जरूरत थी?

दिमाग में नींद के असरात अभी खत्म नहीं हुए थे— उसने फिर सोने के लिये आंखें बंद कर लीं।

लेकिन अभी कुछ वक्त ही गुजरा था और वह नींद की देहरी पर ही पहुंचा रहा होगा कि फिर आवाज़ों ने उसे वापस खींच लिया।

इस बार चूंकि नींद में नहीं था तो साफ समझ में आया कि कोई दरवाजा पीट रहा था। यह समझ में आते ही वह बुरी तरह चिंहुक कर उठ बैठा... दिमाग में मौजूद नींद एकदम फना हो गई।

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WRITTEN BY ASHFAQ AHMAD

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