वो कौन थी

  


वो कौन थी 

हरेक की जिंदगी में कुछ बातें, कुछ लम्हे, कुछ किस्से, कुछ घटनायें ऐसी जरूर होती हैं जो उसकी मेमोरी में हमेशा के लिये सुरक्षित हो जाती हैं। कुछ ऐसी घटनायें, जहां आखिर में लगा सवालिया निशान कभी न खत्म हो पाये— ऐसी न भुला सकने वाली स्मृतियों में अपना एक खास मकाम बना कर रखती हैं।

अब चूंकि मैं पुलिस की नौकरी में रहा हूं, जहां पूरे कैरियर के दौरान जाने कितने अनसुलझे केस भी मेरी स्मृतियों में दर्ज हुए हैं तो ऐसा नहीं है कि मैं सवालिया निशान छोड़ जाने वाली घटनाओं में सभी को याद रख सकूं— हां, लेकिन कुछ घटनायें तो फिर भी होती हैं जो अपना अलग ही मकाम रखती हैं। ऐसी ही एक घटना है— जब भी कभी मेरे सामने भूत-प्रेत, आत्मा वगैरह की कोई बात हो, तो मेरी स्मृतियों में ऐसे हलचल मचा देती है जैसे किसी झील के शांत पानी में कोई पत्थर फेंक दिया गया हो।

हां, मैं अपने बारे में बताना भूल गया... मेरा नाम अविनाश है, उपनाम इसलिये नहीं बताऊंगा कि उससे जाति झलकती है और मैं इस कहानी के किरदार के रूप में बस एक इंसान ही रहना चाहता हूं। पुलिस सेवा में सफलता पूर्वक पैंतीस साल गुजार कर रिटायर हो चुका हूं और अब चंडीगढ़ में रहता हूं। ज्यादातर वक्त घर में पोतों के साथ खेलने, या सुबह शाम पार्क में अपनी उम्र के लोगों के साथ गप्पे लड़ाने में गुजरता है।

बचपन से धर्म में कोई खास रूचि न रही तो ज्यादातर धार्मिक विश्वासों से दूर ही रहा हूं। इस नाते किसी भी तरह के अंध-विश्वास के खिलाफ सख्ती से ही पेश आया हूं हमेशा से, और भूत-प्रेत, आत्मा जैसे किसी भी विचार को बड़ी कठोरता से नकारता रहा हूं। मुझे याद नहीं पड़ता कि कभी किसी ने मेरे सामने इन चीजों पर यकीन जताया हो और मैंने उसे डपटा न हो। फिर भी... मेरी जिंदगी में एक ऐसी घटना जरूर हुई है, जिसका सही मतलब मेरी कभी समझ में न आ पाया और आज तक उस पर लगा सवालिया निशान वैसे ही बरकरार है।

आज शाम जब हम कुछ बूढ़े पार्क में जमा हुए थे तो सिहग साहब कल रात उनके साथ हुआ एक वाक्या बताने लगे, जो किसी आत्मा से मुठभेड़ होने को लेकर था। जहां बाकी साथी सिहग साहब की हां में हां मिलाने लग गये और अपने साथ कभी हुआ ऐसा ही कोई अनुभव बताने लग गये— वहीं मैं लगातार उनकी बातों के खिलाफ बहस करता रहा लेकिन जाहिर है कि उन धार्मिकों के बीच मैं अकेला अर्ध-नास्तिक टाईप शख़्स था तो चली उनकी ही।

फिर वापस घर आ कर जब रात को बिस्तर के हवाले हुआ तो दिमाग में वैसी ही एक घटना हलचल मचाये हुए थी, जिसका सामना मैंने किया था, लेकिन जिस मुअम्मे को न कभी मैं सुलझा पाया और न ही किसी को बता ही पाया।

बात आज से करीब चालीस साल पहले की है, उन दिनों मैं ताजा-ताजा ही ज्वाईन हुआ था और एक ऊर्जा से भरा हुआ नौजवान था जो अपनी परफार्मेंस से अपने अधिकारियों को जल्द-से-जल्द प्रभावित कर लेना चाहता था। मेरी ज्वाइनिंग पीलीभीत में हुई थी और पुश्तैनी घर नेवरिया हुसैनपुर में था तो इसी के बीच दौड़ चलती रहती थी।

मुझे आज भी वह दिन उसी तरह याद है, और याद हैं उससे जुड़ी सारी घटनाएं— ठीक उसी तरह जैसे अभी हाल ही में गुजरी हों।

उस दिन शाम से ही मौसम खराब था और आकाश बादलों से घिरा हुआ था— पानी कहीं तेज बरसने लगता था तो कहीं टिपटिपाने लगता था। हवा कभी हौले-हौले तन सहलाने की अवस्था में आ जाती तो कभी उखाड़ फेंकने पर उतारू हो जाती। बादलों की घनगरज का सिलसिला भी रुक-रुक कर जारी था— रास्ते के किनारे मौजूद पेड़ किसी-किसी पल में एकदम शांत दिखते तो किन्हीं पलों में मस्ती में झूमने लगते।

मैं ड्यूटी के लिये उस शाम पीलीभीत लौट रहा था... यह सन अस्सी के आसपास की बात है। सड़क पहले से ही खस्ताहाल थी और इस बारिश ने तो रास्ते की हालत ही खराब कर रखी थी। खटारा सी जीप अपनी सामर्थ्य भर उन हालात और उस रास्ते का सामना कर रही थी, लेकिन मैं परेशान हाल लगातार यही सोच रहा था कि वह कहीं रास्ते में दगा न दे जाये... आसपास तो कोई आबादी भी नहीं थी कि शरण मिल सकती।

फिर जब औरिया क्रास हो चुका तो एक जगह आखिरकार जीप ने हाथ खड़े कर दिये।

न चाहते हुए भी मुंह से कई अपशब्द निकल गये।

झुंझलाहट में स्टेयरिंग पर हाथ मार कर रह गया। आसपास कोई भी ऐसी चीज नहीं थी जिससे उम्मीद की जा सकती। बस पानी से भीगे झूमते पेड़ खड़े थे या इधर-उधर पानी से भरे थाल दिख रहे थे। कोई घर, गुमटी या इंसान तो ऐसे मौसम में क्या दिखता— कोई आवारा जानवर तक नहीं दिख रहा था कि उसे देख के ही तसल्ली होती कि चलो कोई तो है जो ऐसे मौसम में मेरी तरह घर से बाहर है।

बूंदें हल्की हुईं तो उतर कर बोनट खोला लेकिन कम से कम मैं इतना सक्षम तो नहीं था कि किसी बारीक फाॅल्ट को पकड़ लेता... और कोई बड़ा, नजर में आने लायक दोष तो दिख नहीं रहा था जो वह यूं रूठ कर खड़ी हो गई थी।

मायूस हो कर वापस अंदर आ बैठा और सोचने लगा कि ऐसी स्थिति में क्या किया जा सकता था। अंधेरा तेजी से बढ़ता जा रहा था तो तय था कि कोई मदद मिलने की उम्मीद भी उसके बढ़ने के साथ ही कमजोर हो रही थी।


Written By Ashfaq Ahmad

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