अतीत यात्रा 5


पुराने समय के दास और वर्तमान समय के दलित के बीच क्या रिश्ता हो सकता है

भारतीय इतिहास को कुरेदते हुये एक सवाल जहन में आता है कि यह वर्तमान के दलित कैसे बने? हिंदू धर्म के ग्रंथों में कई जगह अपने ही एक वर्ग के खिलाफ इतनी खराब-खराब बातें कैसे लिखी हो सकती हैं? सवाल स्वाभाविक है क्योंकि दुनिया के और किसी समाज में ऐसा विघटन नहीं है जैसा अपने यहां के समाज में देखने को मिलता है। जातियों में ऊंच-नीच मिलती है लेकिन इस तरह का भेदभाव और छुआछूत नहीं मिलता कि जहां अपने ही एक वर्ग को इंसान ही न समझा जाता हो। इसे समझने के लिये बहुत पीछे चलना होगा जहां अलग-अलग विश्वासों वाली टोलियाँ किसी न किसी टाॅटेम के अंतर्गत पनप रही थीं।

इसे इस तरह भी समझिये कि भूमध्यसागर से ले कर सिंध तक मैदानी भूभाग था जहां आबादियों का विकास अलग तरह से हुआ जबकि अमेरिका, अफ्रीका, भारत, पूर्वी एशिया में यह विकास उस मैदानी विकास के मुकाबले अलग ढंग से हुआ। मैदानी लोग बड़े समाजों और सभ्यताओं में जल्दी ढले जबकि बाकियों के विकास की गति बहुत धीमी रही। शुरुआती दौर में वे छोटे-छोटे समूह हुआ करते थे जो असुरक्षा की भावना के चलते दूसरे समूहों को स्वीकार नहीं कर पाते थे और सामना होने पर लड़ाई होनी तय थी.. या और ज्यादा जमीन, चरागाह, संसाधनों की चाहत में अपने क्षेत्र के विस्तार की भूख के चलते यह लड़ाईयां होती रहती थीं।
अब लड़ाई में कुछ कबीले तो पूरी तरह खत्म कर देने में यकीन रखते थे, कुछ मर्दों को मार कर स्त्रियों को अपने कुनबे में शामिल कर लेते थे। फिर जब उत्पादन क्षमता बढ़ाने की जरूरत पड़ी तब मर्दों को मारने के बजाय कैद किया जाने लगा। कालांतर में इस तरह लोगों को पकड़ कर बेचने की परंपरा भी पनपी जिसमें स्त्री-पुरुष दोनों बिकते थे और कोई भी विजित मनुष्य एक सामान की तरह ही ट्रीट किया जाता था। यह परंपरा एक साथ थोड़ा आगे पीछे पूरी दुनिया में पनपी थी और उन्नीसवीं सदी तक चली है। चाहें तो माया सभ्यता पर आधारित मेल गिब्सन की हाॅलीवुड मूवी 'अपोकैलिप्टो' देख कर इस व्यवस्था को समझ सकते हैं।

उत्तरी योरोप के गोरे लोग भी अपने ही ताकतवर लोगों द्वारा गुलाम बनाये गये, आगे अंग्रेजों ने अफ्रीका को गुलामों की खान बना लिया, भूमध्यसागर के आसपास के ताकतवर लोगों ने अफ्रीका से गुलाम पकड़े और चीन की तरफ मंगोलों ने भी यह किया, अमेरिका में इंका, माया जैसी सभ्यताओं के लोगों ने भी यह किया, भारत में यहाँ के ताकतवर कबीलों ने यही किया जिनमें आर्य बस्तियां आगे चल कर मुख्य हुईं, भले इस परंपरा की शुरूआत उनसे कहीं पहले हो चुकी थी। यह विजित लोग दास-दासी कहलाते थे और इन्हें किसी तरह के कोई अधिकार नहीं होते थे। इन्हें लेकर जो नियम थे, वह भारत से लेकर अमेरिका तक समान थे। साफ शब्दों में कहें तो इन्हें इंसान नहीं समझा जाता था और इन्हें पूरी तरह इंसान कहलाने में हजारों साल लगे हैं और यह सिलसिला पिछली सदी में खत्म हो पाया है।
आपको भले अटपटा लगे लेकिन दासों के मामले में पहली उदारता सातवीं शताब्दी में मुसलमानों की तरफ से ही दिखाई गयी जहाँ यथरिब (अब के मदीना) में इन्हें बराबरी का इंसान माना गया। इसका मतलब यह नहीं था कि पैगम्बर के कह देने भर से दास प्रथा का उन्मूलन हो गया बल्कि यह बहुत बाद तक चलती रही। आप इतिहास में रजिया के साथ उसके गुलाम याकूत को दास के रूप में पा सकते हैं। पूरी तरह तो मुसलमानों में भी पिछली सदी में ही खत्म हुई पर चूंकि इस्लाम ने न सिर्फ इसकी शुरुआत की और धार्मिक रूप से बराबरी दी तो श्रेय उन्हें ही देना पड़ेगा। दास वर्ग के लोगों पर यूं तो पूरी दुनिया में अत्याचार हुए लेकिन सबसे ज्यादा और सबसे देर तक अमेरिका में यह सिलसिला चला, जहां इस भेद को काले गोरे के वर्ग संघर्ष के रूप में चिन्हित किया गया। बाकी जगह इस वर्ग को फिर मुक्ति मिलने के बाद समाज में बराबरी की जगह मिल गई लेकिन भारत में कुछ और हुआ जो सबसे अलग था।

भारत में ताकतवर होते राज्य जिनमें आर्य प्रधानता या वैदिक धर्म वाले मुख्य थे, लगातार दूसरी जातियों पर विजय हासिल करते उन्हें दास बनाते रहे। बहुत पहले जब यह भारत में स्थापित हुए तब यज्ञ (इनकी संसद समझ लीजिये) में सब शामिल होते थे और इनका निर्णय ब्रह्म था लेकिन बाद में एक वर्ग के लोगों को यह अधिकार रह गया और नये इलाके जीतने और उससे उत्पन्न खतरे के मद्देनजर उपजी असुरक्षा के चलते इन्हीं से कुछ लोगों ने सैनिक की भूमिका संभाल ली। अब यह दो ब्राहमण और क्षत्रिय वर्ग हो जाने के बाद बाकी बची आबादी को समाज के लिये भोजन या मनोरंजन आदि के प्रबंधन के लिये आरक्षित कर दिया गया, जिसे विश या वैश्य कहते थे। यह लोग यज्ञ किसी मिशन पर निकलने से पहले भी करते थे और विजय के बाद भी करते थे, जहां लूटा हुआ माल दान के रूप में आपस में बांटा जाता था.. इसी चीज को अरबी संस्कृति में माले गनीमत कहते थे।
तब तीन वर्ग थे समाज के और दासों की कोई हिस्सेदारी नहीं थी.. उन्हें इंसान ही नहीं समझा जाता था तो समाज में कैसे शामिल करते। यहां दास का मतलब कोई विशेष जाति नहीं थी और न ही सिर्फ वनों में रहने वाले कबीले थे बल्कि वे उन्हीं के जैसे वर्ग वाले भी हो सकते थे जो विजित होने के बाद दास की भूमिका में आ जाते थे। पहले उनकी पहचान कुछ भी रही हो लेकिन एक बार बंदी होने के बाद वे बस दास होते थे। पहले इन्हें समाज के अन्य वर्ग अपने साथ ही रखते थे और तब छुआछूत जैसा मैटर नहीं था। बाद में इनकी आबादी ज्यादा होने पर या खेती, खान में मजदूरी, वन कटाई, या निचले स्तर के काम के आधार पर इन्हें मुख्य आबादी से अलग बसाया/रखा जाने लगा.. कालांतर में यही दलित कहलाये। उस वक्त इन्हें शूद्र की संज्ञा दी गई, हालांकि यह समाज का हिस्सा नहीं थे और बस दास वर्ग को अलग पहचान देने के लिये ही इन्हें शूद्र की पहचान दी गयी थी। छुआछूत की भावना भी शायद तभी पनपी, वर्ना साथ रहने के दौरान तो यही लोग खाना भी बनाते थे।

अब यहां से कुछ मुख्य चीजें समझिये.. जो आप ब्राहमणों के ग्रंथों में और खासकर मनुस्मृति में शूद्र के साथ तमाम आपत्तिजनक और क्रूर नियम पाते हैं दरअसल यह दास वर्ग के लिये थे जो पूरी दुनिया के ही लोगों के बीच आमतौर पर प्रचलित थे, न कि ऐसा सिर्फ भारत में हुआ था। जहां इन्हें बराबरी का सम्मान जैसा दिया जाता दिखे, समझिये कि उस दौर की बात है जब वे साथ रहते थे या दास नहीं बने थे। किसी भी ग्रंथ के क्रोनोलाॅजिकल ऑर्डर में गड़बड़ी की वजह से यह एक क्रम में न दिख कर मिश्रित रूप में भी ऐसा दिख सकता है। दूसरे जिन्हें आज ओबीसी कहते हैं, वे भी कभी मुख्य तीन वर्गों के बाहर मौजूद उसी दास व्यवस्था से निकले हैं जिन्हें उनके काम के हिसाब से कुछ अधिकार तो कुछ सम्मान दिया गया.. मतलब यह शूद्र वर्ण दलित और ओबीसी दोनों पर लागू होता है।
तीसरे यह समझिये कि शूद्र शब्द के पीछे का भाव अलग-अलग भी रहा है। जब यह शब्द मनुस्मृति में इस्तेमाल होता है तो इसका अर्थ जातीय पहचान नहीं बल्कि दास वर्ग की पहचान है लेकिन जब अकबर के समकालीन तुलसीदास रामचरित मानस में 'ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी' करते हैं तब उनका शूद्र दास वर्ग के लिये नहीं बल्कि जातीय/वर्णीय पहचान वाला होता है। इस लाईन के साथ अक्सर लीपापोती की कोशिश होती है लेकिन उस वक्त की परिस्थितियों और शूद्र/स्त्री की सामाजिक स्थिति देखते साफ समझ आता है कि अर्थ वही था जो दलित निकालते हैं न कि वह, जिससे उसे कवर करने की कोशिश की जाती है।
यानि अतीत के दास ही आगे चल कर शूद्र हुए और आगे जा कर ओबीसी और एससी में बंटे जबकि वनों में तमाम ऐसी छोटी आदिवासी प्रजातियाँ भी अस्तित्व में रहीं जो इस पूरे कालखंड में लगभग अछूती रहीं और वही नये दौर में एसटी के रूप में पहचानी गयीं। यह उस चार वर्ण में बंटे समाज से बिलकुल अलग थीं और इसीलिये वे आज भी खुद के हिंदू कहलाने से परहेज करती हैं। एक चीज इससे यह भी समझ में आती है कि इसी तरह के सिस्टम की वजह से एक ही जाति किसी राज्य में किसी वर्ण में है तो किसी राज्य में किसी वर्ण में।


No comments

Please Dont Enter any Spam Link