सृष्टि सूत्र 3


अलग आयाम की किसी भी वस्तु को हम क्यों नहीं महसूस कर सकते?

ठीक है, आपने दो स्केल पर चीजें समझ लीं, अब तीसरे और फाईनल स्केल पर आइये। पहले आप सुपर यूनिवर्स को देख रहे थे, फिर अपने यूनिवर्स पर आये और अब अपने ग्रह पर आ जाइये।

यहाँ जो चीज आपको सबसे ज्यादा उलझन में डाल रही होगी, वह यह कि भला ऐसा कैसे हो सकता है कि हमारे सामने कोई चीज बने और हम उसे देख या महसूस ही न कर सकें.. मतलब एटम्स में ऐसी क्या हेरफेर हो सकती है जो मैटर को इस हद तक बदल दे। अब इस चीज को थोड़े छोटे पैमाने पर अपने आसपास के वातावरण से समझिये।

आप जिस जगह खड़े हैं, वहां से दूर दिखते किसी ऑब्जेक्ट को देखिये.. मसलन कोई पहाड़, कोई बिल्डिंग या कोई इंसान। आप उस चीज को इसलिये देख पा रहे हैं क्योंकि आपके और उस ऑब्जेक्ट के बीच में कोई अवरोध नहीं है यानि खाली जगह है। क्या कभी आप यह सोचते हैं कि असल में खाली जैसा कुछ नहीं है.. बीच में ठीक वैसे ही खरबों एटम्स मौजूद हैं जिनसे खुद आप या वह ऑब्जेक्ट बना है.. फर्क इतना है कि आप दोनों एटम्स का ठोस रूप हैं जबकि बीच में मौजूद स्पेस एटम्स का गैसीय रूप।
मतलब जिन एटम्स से आप बने हैं, उनकी ही एक स्टेट आपके लिये अदृश्य हो जाती है.. इसी चीज को एक क्लीन ट्रांसपैरेंट ग्लास पर आजमाइये। आप उसके पार इस तरह देख पाते हैं कि जैसे बीच में उसका वजूद हो ही न। बस छूने से पता चलता है कि बीच में शीशा है, वर्ना बिना छुए वह आपके लिये है ही नहीं। अब दो ऑब्जेक्ट्स के बीच के स्पेस को या सामने दिखते दृश्य के बीच में मौजूद शीशे को आप भले देख न पायें लेकिन उसे डिटेक्ट कर सकते हैं क्योंकि यह सब उसी यूनिवर्स का हिस्सा है, जिसके खुद आप हैं।

एक यूनिवर्स की हर चीज उस यूनिवर्स के अंदर मौजूद जीव के लिये कनेक्टिंग और किसी न किसी रूप में डिटेक्टेबल रहेगी जबकि ठीक हवा और पारदर्शी कांच की तर्ज पर किसी और यूनिवर्स की चीजें आपके लिये अदृश्य और अनडिटेक्टेबल हो सकती हैं।
मसलन समझ लीजिये कि अपने ही यूनिवर्स में इसी तरह की रीसाईकल प्रक्रिया से बने किसी और यूनिवर्स में सारा मैटर पारदर्शी कांच या हवा के रूप में ढला हो सकता है कि उनके सभी पिंड और यहां तक कि उनकी वनस्पति और जीव तक इसी फाॅर्म में हों कि भले वे हमारे लिये छूने या किसी और तरह से डिटेक्ट करने पर जाहिर हों...

लेकिन हमारे बीच इतनी दूरी है कि ऐसा करने के लिये हम वहां जा ही नहीं सकते और हमारी आंखें या टेलिस्कोप दूर से उन्हें देखने या डिटेक्ट करने में सक्षम नहीं। तो इस तरह से अलग-अलग आयाम में एक साथ कई यूनिवर्स एग्जिस्ट करते हो सकते हैं और सबके बनने और खत्म होने के अपने चक्र चल रहे होंगे। सबकी सीमायें भी होंगी और सबके आदि और अंत भी होंगे।
हालांकि इस तरह की चीजें किताबों में ही लिखी जाती हैं मगर फिर भी लिख दी.. उम्मीद है कि जिस पोस्ट पर आये कमेंट्स से खीज कर यह सब लिखा है, अब आप समझ पाये होंगे कि मैं आपको उस सुपर यूनिवर्स रूपी हाॅल के बाहर ले जाने की कोशिश कर रहा था और आप उस हाॅल के अंदर गति करते सैकड़ों यूनिवर्स में से एक यूनिवर्स के अंदर मौजूद रहते सारे गणित भिड़ा रहे थे, सारी संभावनाएं टटोल रहे थे।

अपना कैनवस बड़ा कीजिये और सोचिये कि हमारे लिये एक सीमा उस हाल की दीवारें, छत, फर्श हो सकती हैं लेकिन उसके पार क्या है। कैसा हो कि जब आप बाहर निकल कर देखें तो पता चले कि अरे, यह हाॅल तो एक ग्राउंड में बना है। ग्राउंड एक ग्रह पर है, ग्रह तो एक गैलेक्सी में है, गैलैक्सी तो एक क्लस्टर में है, क्लस्टर तो एक यूनिवर्स में है.. फिर उस यूनिवर्स के पार क्या है?
तो अब आया समझ में? कृपया दर्शन और अध्यात्म वाला एंगल न परोसें.. हर जगह वह काम नहीं करता। बाकी जो तथाकथित ईश्वर और रचियता वाले हैं, वे समझ सकते हैं कि ऐसा कोई क्रियेटर हो सकता है जिसने इस हाॅल के अंदर वाले सिस्टम को स्विच किया (हालांकि इससे ज्यादा उसे अंदर वाले बैक्टीरिया से मतलब भी न होगा जो सब रचे गढ़े बैठे हैं), क्योंकि वह खुद इस हाॅल से बाहर है
लेकिन जैसे ही आप हाॅल से बाहर देखते हैं तो वह खुद ही एक रचना के रूप में नजर आता है, ठीक इसी तर्ज पर जिसका कि कोई और क्रियेटर होगा.. अब अगर आप सबसे अंतिम लेयर वाले को अपना क्रियेटर ठहराना चाहते हैं तो उसका कोई पता ठिकाना नहीं कि इस सिलसिले का अंत है कहाँ, फिर आपका सम्बंध सिर्फ अपने सर्कल वाले से ही हो सकता है जो सबकुछ होने या सर्वशक्तिमान होने जैसी कैटेगरी में कतई अनफिट है।


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