आस्था बनाम तर्क 5

 

आस्था बनाम तर्क

झूठी गवाही

ज़ाहिर है कि इसका आपको जवाब नहीं सूझेगा… क्योंकि जिस वक़्त यह सब किताबें लिखी गयी थींस्रष्टि भूकेंद्रित हुआ करती थीज़मीन एक चपठे चबूतरे जैसी मान्यता रखती थी और ऊपर मतलब एकरुखा आसमान ही होता था… खैरठीक इसी तरह एक टर्म है गवाही। अब यह गवाही क्या चीज़ है इसे समझिये--
  
अगर आपसे यह पूछा जाये कि गांधी जी को किसने मारा तो आप फौरन कहोगे कि नाथूराम गोडसे ने... हाँकुछ नयी पैदा हुई प्रजाति के भी मिलेंगे जो बता सकते हैं कि गोली अपने आप चली थीजैसे हिट एंड रन केस में सलमान की कार अपने आप चली थी।
  
लेकिन मोटे तौर पर सब जानते और मानते हैं कि किसने मारा... अब आप कल्पना कीजिये कि एक दिन आपको किसी अदालत से बुलावा आता हैकि चूँकि आप जानते हैं कि गांधी को किसने मारा तो आपको अदालत में आकर इस बात की गवाही देनी है।
  
तब आप निश्चित ही भौंचक्के रह जायेंगे कि ऐसा कैसे हो सकता है— किसी घटना या किसी बात की गवाही तब ही दी जा सकती हैजब आप चश्मदीद होंजब आप सशरीर वहां मौजूद होंसबकुछ अपनी आंख कान से देखा सुना हो... या उस घटना या बात से किसी तरह भी जुड़े रहे हों।
जो कहीं पढ़ा होसुना हो— कम से कम उसकी गवाही तो नहीं दे सकते नलेकिन एक दूसरे केस में ऐसी ही गवाही ईमान की गारंटी मानी जाती हैभले आपको यह बात पढ़ने सुनने में अजीब लगे।
आस्था बनाम तर्क
Faith versus Logic
  
गौर से सुनिये किसी अज़ान को— मुअज्जिन दिन में कई बार यह गवाही देता है। अशहदुअल्ला इलाहा इल्लल्लाह... यानि मैं गवाही देता हूं कि अल्लाह एक है और कोई उसका माबूद नहीं। अशहदुअन्ना मुहमम्दुर्रसूलल्लाह... यानि मैं गवाही देता हूं कि हजरत मुहम्मद मुस्तफा सलल्लाहो अलैवसल्लम उसके रसूल हैं।
  
यही गवाही कलमा है— यही गवाही ईमान की बुनियाद है। यहां दो बातें सोचने लायक हैं कि अल्लाह एक है और मुहम्मद साहब उसके रसूल हैं... यह मानना अहम हैया इसकी गवाही देना कि मैं गवाही देता हूं कि ऐसा है— गवाही किस बात की दी जाती है?
  
मान्यतायें सभी धर्मों की हैं— यहूदियों के हिसाब से यहोवा एक हैईसाइयों के हिसाब से गॉड एक हैहिंदुओं के हिसाब से ईश्वर एक है... यहूदियों के हिसाब से मूसा यहोवा के दूत हैंईसाइयों के हिसाब से जीसस गॉड के बेटे हैंहिंदुओं के हिसाब से श्रीराम और श्रीकृष्ण भगवान के अवतार हैं... पर इस तरह की गवाहियों की जरूरत उन्हें क्यों नहीं पड़ती?


क्या वाकई लोग ऐसी गवाही देने के लिये एलिजिबल हैं

अगर कोई इसाई कहे कि मैं गवाही देता हूं कि यीशू परमात्मा के बेटे हैंया यहूदी गवाही दे कि मोजेज यहोवा के दूत हैंया हिंदू कहे कि मैं गवाही देता हूं कि राम विष्णु के अवतार हैं— तो क्या आप मान लेंगे कि वे गवाही देने के लिये एलिजिबल हैंनहीं— भले आप उसकी आस्था का ख्याल करते हुए कुछ न कहें मगर मन में हंसेंगेक्योंकि वह एक व्यवहारिक गलती कर रहा होगा... पर यही आप करते हैं।
  
इस कलमे या अज़ान का निर्धारण जिस दौरे रसूल में हुआतब चूँकि खुद प्रोफेट उनके सामने मौजूद थे और वे खुदा के एक या अनेक होने और अपने नबी होने की गारंटी अपनी जुबान से दे रहे थेतब टेक्निकली लोगों की शहादत गलत नहीं थी— लेकिन अब?
जब आप कहते हैंलाइलाहा इल्लल्ला— तो बात ठीक होती हैक्योंकि यह तो और भी धर्मों की मान्यता है कि ईश्वर एक है। जब आप कहते हैं कि मुहम्मदुर्रसुलल्लाहतब भी आप ठीक होते हैं कि मुहम्मद साहब उसके रसूल हैं— हाँहो सकते हैं। जैसे सबके विश्वास हैंवैसे ही आपका भी विश्वास है... उसे कटघरे में नहीं खड़ा किया जा सकता।
 
आस्था बनाम तर्क
Kalma Shahadat
  
लेकिन जैसे ही आप उसके साथ अपनी शहादत जोड़ते हैं— टेक्निकली आपकी बात की व्यवहारिकता संदिग्ध हो जाती हैक्योंकि गवाही की परिभाषा तो कुछ और ही होती है। हाँ एक संभावना यह भी है कि दीन के मामले में आपने गवाही के मायने कुछ और बना लिये होंक्योंकि हमने तो बचपन से यही रट्टा मारा था कि पहला कलमा तय्यब— तय्यब माने पाकदूसरा कलमा शहादतशहादत माने गवाही देना... और मैं गवाही देता हूं कि अल्लाह तआला एक है और हजरत मुहम्मद मुस्तफा सलल्लाहो अलैवसल्लम उसके रसूल हैं।
  
सिर्फ मान्यता या आस्था को अपने पक्ष में मत पेश कीजियेगाक्योंकि मान्यतायें-आस्थायें दूसरों की भी हैंलेकिन वे गवाही नहीं देते।
  
इसी तरह एक सवाल कब्र को लेकर भी जूझने पर मजबूर करता हैअगर इंसान सोचने समझने की क्षमता रखता है तोवर्ना मान लेना ही अगर आपके लिये सबकुछ है तो फिर कोई भी चीज़ आपको परेशान नहीं कर सकती।


मरने के बाद क्या होगा

ज़रा सोचिये कि क्या यह सवाल आपके ज़हन में नहीं आता कि मरने के बाद क्या होगा— इस्लामिक मान्यताओं के हिसाब से कब्र में दफन होने के बाद तीन सवाल पूछे जायेंगे और सही जवाब न दे पाने की सूरत में कब्र की दीवारें सजा की सूरत में उस पर इस कदर सख्त हो जायेंगी कि पसलियां एक दूसरे में घुस जायें— और ताकयामत सांप बिच्छू के रूप में उस पर कब्र का अजाब नाजिल होता रहेगा।
आस्था बनाम तर्क
After Death
  
लेकिन इस थ्योरी के साथ एक दिक्कत यह है कि जमीन पर रहने वाला हर इंसान तो खुदा की ही बनाई मखलूक हैऔर सवाल जवाब का पता तो सिर्फ मुसलमानों को हैतो बाकी गैरमुस्लिम कैसे सवाल जवाब के मरहले से गुजरेंगेफिर शरीर तो दो महीने में सड़ कर मिट्टी हो जायेगा तो सांप बिच्छू उसका क्या कर लेंगेया कोई कब्र में ही न दफ़न हो… बॉडी टर्मिनेशन के तो कई तरीके दुनिया में प्रचलित हैं।
  
बहरहालएक बात और कही जाती है कि मरने के बाद की जिंदगी हमेशा हमेश की है— यहां इशारा बाद कयामत के जन्नत दोजख से होता है जहां मौत ही नहीं आनी— लेकिन फिर जो हमसे पहले मर चुके हैंऔर चूँकि ज़ाहिर है कि कयामत तो अभी आयी नहीं— तो वे कहां हैं?
  
कुरान और हदीसों से कई जगह यह साबित होता है कि लोगों को जन्नत या दोजख भेजा गया— उदाहरणार्थसूरह या-सीन की 26 नंबर आयत है... जो एक शख्स के विषय में बताती है जिसने अपने सामने मौजूद रसूल का समर्थन किया और उसके लिये खुदा कहता है— प्रवेश करो जन्नत में।
  
जबकि कुरान में ही साफ तौर पर यह भी कहा गया है कि हश्र के रोज सबका हिसाब किताब होगा और तब सबके आमालों के हिसाब से पुल सरात से गुजर कर जन्नत या दोजख के रूप इनाम या सजा मिलेगी— तो यह पहले से जन्नत या दोजख में लोग कैसे पंहुच गये?

बरज़ख या आलमे बरज़ख क्या है

इन सभी सवालों का जवाब "बरजख" नाम के कांसेप्ट में हैयानि एक एसी आभासी दुनिया जहां अच्छे आमाल वालों के लिये वादियुस्सलाम (सलामती की वादी) और बुरे आमाल वालों के लिये  वादिये बरहूत (भयानक वादी) के रूप में आभासी जन्नत और दोजख मौजूद हैं। यानि वह घर जहां जिस्म छोड़ते ही रूहें मुंतकिल हो जाती हैं और वहां वह तब तक जन्नत का सुख या दोजख का अजाब उठायेंगीजब तक फाईनली कयामत न आ जाये।
  
आस्था बनाम तर्क
Barzakh Concept
शरीर यहीं सड़ गल जाना हैउसका फिलहाल कुछ नहीं होना और आलमे बरजखऔर वास्तविक दोजख जन्नत में फर्क यह है कि बरजख में सजा या ईनाम वर्चुअल रूप में दिया जायेगा और कयामत के बाद उसी शरीर को जिंदा करके सशरीर सजा या ईनाम दिया जायेगा... यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि जब सजा या ईनाम की अनुभूतियां वास्तविक होंगी तो इस बात का मतलब क्या रह गया कि वे शरीर के साथ मिली या नहींऔर अनुभूतियां रियल नहीं होंगी तो फिर इस कांसेप्ट का मतलब ही क्या रह जाता है।
दूसरी चीज यह भी ध्यान देने वाली है कि आलमे बरजख के वादियुस्सलाम वाले हिस्से में सिर्फ मुसलमान या पिछले नबियों के लोग ही पाये जायेंगेजबकि बाकी सभी वादिये बरहूत में। यानि आज की तारिख में डेढ़ सौ करोड़ मुसलमान छोड़ कर (उनमें भी बस नेक अमल वाले)बाकी सभी साढ़े पांच सौ करोड़ लोग वादिये बरहूत के मटेरियल हैं— किसी यूनिवर्स मेकर के लिहाज से क्या यह डिस्क्रिमिनेटिव बिहैवियर नहीं हैलेकिन खैर
  
यहां से यह सवाल शुरू होता है— कि इंसानी सभ्यता लाख साल से ज्यादा पुरानी हैऔर तब से अब तक अरबों पापी, ‘बरहूत मैटेरियल’ मर चुके होंगे और सजायें झेल रहे होंगेलेकिन कयामत तो अभी आई नहीं— और मान लीजिये दस बीस हजार साल बाद आती हैया कल भी आ जाये तो जो पापी सबसे लास्ट में मरेंगे… वे कयामत तक कुछ भी सजा न झेले कहे जायेंगे और उनका सीधे हिसाब किताब होगा— सजा अपराध के अनुपात में एक ही है... मान लीजिये दो पापियों ने चोरी की थीअब सौ साल तक दोजख में रह कर कोड़े खाने की सजा मिलती है दोनों को— एक उसे भीजो कल मरा और एक उसे भी जो लाख साल पहले चोरी करके मरा था और आलमे  बरजख के वादिये बरहूत में लाख साल से कोड़े खा रहा था।

क्या यह एक न्यायप्रिय खुदा के लिहाज से भेदभाव और अन्याय नहीं?
Written by Ashfaq Ahmad

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