खिड़की, जो कभी बंद नहीं हुई

 


कुछ खिड़कियां बाहर खुलती हैं कुछ अंदर

(खिड़की, जो कभी बंद नहीं हुई)

कहानी

वो खिड़की हमेशा आधी खुली ही दिखती थी।

शायद ना तो पूरी तरह खुलने की हिम्मत थी उसमें और ना ही पूरी तरह बंद हो जाने की नियति थी उसकी।

समीरा अक्सर उसे देखती रहती— अपने ही कमरे की उस पुरानी लकड़ी की खिड़की को, जहाँ से हवा तो आती थी, पर राहत नहीं।


नीचे की सड़क से ट्रैफिक का शोर, गाड़ियों के हॉर्न, और बच्चों की चीखें मिल कर जैसे शहर का एक अधूरा सा संगीत रचा करते।

समीरा इस शहर में पिछले नौ सालों से थी— एक कंटेंट एडिटर के रूप में किसी डिजिटल मीडिया कंपनी में काम करते हुए।

 ● कहानी एक जवान भारतीय लड़के की जो एक रात में एक अमीर बूढ़े अमेरिकन में बदल गया था


हर दिन कुछ न कुछ लिखती रहती— दूसरों की कहानियाँ, दूसरों के दर्द, दूसरों के सपनों की रिपोर्टें। अपने बारे में लिखने की हिम्मत वह कभी नहीं जुटा पाई— क्योंकि उसके भीतर जो चल रहा था, वो न खबर बन सकता था, न ही कविता।

रात में जब लैपटॉप की स्क्रीन नीली रोशनी से चमकती, वो खुद को उस रोशनी में देखती— चेहरा वही, पर आँखें मानों किसी और की लगतीं। एक थकी हुई सी लड़की की, जो अब भी किसी अप्रूवल मेल का इंतज़ार करती है — कभी ऑफिस से, कभी ज़िंदगी से।

किराये का ये कमरा उसे किसी जेल से कम नहीं लगता था, बस फर्क इतना था कि ताले की जगह इमोशंस थे, और दीवारों पर ग़लतियों की परतें चिपकी हुईं।

पड़ोस में रहने वाली बूढ़ी अम्मा हर शाम खिड़की के पास तुलसी में पानी डालते हुए कहतीं— “बिटिया, हवा तो आने दिया करो कमरे में, इतनी बंदी क्यों रखती हो?”

समीरा बस मुस्कुरा देती। 

उन्हें क्या बताती कि हवा से ज़्यादा डर उसे खुलापन देता है।

कभी-कभी रात में एक ब्रीफ़केस उठाए आदमी नीचे से गुज़रता। 

वो हमेशा मोबाइल पर किसी से झगड़ता रहता, और उसकी आवाज़ समीरा तक पहुँचती— “ज़िंदगी कोई स्लाइड नहीं है, जिसमें सब स्मूद चले…”

वो वाक्य उसके मन में अटक जाता।

क्योंकि उसकी अपनी ज़िंदगी एक स्टक प्रजेंटेशन जैसी थी— हर स्लाइड पर कोई न कोई अधूरा काम, अधूरी बात, अधूरी ख़्वाहिशें, अधूरा रिश्ता।


उसके ऑफिस में नये इंटर्न आये थे। एक लड़की— बहुत बोल्ड, खुली हुई, सेल्फ अश्योर्ड। वो मीटिंग्स में बॉस की बात काट देती थी, हँसती थी जैसे दुनिया का कोई डर नहीं।

समीरा उसे देखती तो सोचती— “कभी मैं भी ऐसी थी।”

फिर याद आता— नहीं, कभी नहीं।

वो हमेशा दूसरों के लिए जगह छोड़ती रही, बोलने से पहले वाक्य सोचती रही, प्यार करने से पहले अनुमति ढूँढती रही।


एक शाम, जब खिड़की पर बारिश की कुछ बूँदें आ कर अटक गई थीं,

वो देर तक उन्हें देखती रही।

वो जानती थी… ये बूँदें गिरना चाहती हैं, पर शायद किसी ने कहा होगा— “ठहर जाओ, अभी वक़्त नहीं है।”

उसे लगा, वो भी वही बूँद है— काँच पर टिके हुए अस्तित्व की तरह, जो गिरना चाहती है, पर गिर नहीं पाती।


अगली सुबह ऑफिस में, 

समीरा ने अचानक रेजिग्नेशन मेल टाईप करना शुरू कर दिया। कोई बड़ी वजह नहीं थी— बस वही पुरानी खिड़की दिमाग़ में खुली हुई थी। 

वो जानती थी, अगर अब भी नहीं चली, तो यही हवा उसे एक दिन घुटन में बदल देगी।

मेल भेजने से पहले उसने खुद से कहा— “शायद इस बार खिड़की पूरी तरह खुल जायेगी।”



शाम को कमरे में लौट कर उसने खिड़की खोली— पूरी की पूरी।

हवा का एक तेज़ झोंका अंदर आया, फाइलें उड़ कर ज़मीन पर बिखर गईं, और एक पुराना फोटो फ्रेम गिर कर टूट गया। 

उस फ्रेम में उसी की मुस्कुराती हुई तस्वीर थी— जो शायद अब पहली बार सच में आज़ाद लग रही थी।

बाहर हल्की बारिश फिर से शुरू हो गई थी और समीरा को लगा, खिड़की सच में बंद नहीं हुई— 

कभी थी ही नहीं।



Written by Ashfaq Ahmad




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