अतीत यात्रा फाईनल


कौन हो सकते हैं आर्य?

मैक्समूलर की भारत पर आर्यों के आक्रमण वाली थ्योरी गलत हो सकती है, लेकिन उसका मतलब यह भी नहीं कि आर्य सिरे से कोई नस्ल नहीं थी या वे भारतीय भूभाग के ही लोग थे.. यह आज से चार पांच हजार साल पहले आम तौर पर होने वाला प्रवास था, जो इधर से उधर होता रहता था। किसी दौर में कैस्पियन सागर के उत्तर में (वर्तमान के रूस और कजाकिस्तान समझ लीजिये) एक कबीले के लोग रहते थे जो एंड्रोनोवो संस्कृति के रूप में विकसित हुए और अलग-अलग दिशाओं में फैले.. पहचान के लिये इन्हें ही आर्य कहा जाता है। अगर 1850 से पहले किसी ने ऐसा नहीं कहा तो वजह यह भी है कि पुरातत्व के लिहाज से खोजों का सफर भी बस डेढ़-दो सौ साल ही पुराना है। जैसे-जैसे चीजें सामने आयेंगी, वैसे ही उनके बारे में मत बनाया जायेगा।

इस श्रंखला की पहली पोस्ट पर कुछ पाठकों ने करेक्ट करने की कोशिश की थी कि आर्य एक भाषाई परिवार को कहते हैं न कि नस्ल को, और हालांकि इसे सही ठहराने के लिये इस सम्बंध में कई उदाहरण (मैक्समूलर समेत) भी दिये जा सकते हैं लेकिन मेरा विचार यह है कि भाषाई परिवार एक अलग पहचान हुई और नस्लीय पहचान अलग.. आर्यों के सम्बन्ध में भी इसे व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है न कि किसी संकुचित अर्थ के साथ। इसे एक महत्वपूर्ण उदाहरण के साथ समझिये।

एक बात तो तय है कि इंसान का ओरिजिन भारत नहीं है बल्कि अब तक उपलब्ध साक्ष्यों के हिसाब से अफ्रीका है तो कभी वहां से निकल कर जब लोग छोटी-छोटी टोलियों में फैले होंगे तो वे भले एक या कुछ फैमिली ट्री से ही सम्बंधित हों लेकिन अलग-अलग उनकी पहचान निर्धारित करने से ही चीजें समझने में आसानी होती है। अब असम के वनों में आ बसी एक टोली को लीजिये.. यह समझिये कि वे एक पिता की औलाद नहीं हैं बल्कि लोगों का समूह हैं जिनमें वे भी होंगे जो अतीत में अपने मूल स्थान से चले होंगे और वे भी होंगे जो उनके प्रवास में अपने मूल दलों से अलग हो कर उनसे आ मिले होंगे। ज्यादा डीप में न जा कर बस इतना समझिये कि एक पिता की संतान न होते हुए भी वह टोली एक परिवार है जिसे हम नाम देते हैं.. नाग।
इस नाग परिवार की अपनी ईश्वरीय मान्यता, संस्कृति और भाषा है.. अब जब इनकी आबादी उस जगह उपलब्ध संसाधनों के अनुपात में बढ़ जाती है तब परंपरा के मुताबिक उनमें से एक दल निकल कर अलग किसी जगह जा बसता है और नाग होने के साथ अपनी 'क्राथ' के रूप में अलग पहचान बनाता है। इसी तरह दलों में से दल निकलते रहे और चारों तरफ फैलते रहे। कहीं उन्हें मार कर अपने में मिला लिया गया तो कहीं उन्होंने किसी को मार कर अपने में मिला लिया, सामने वाले भी अपनी कुछ अलग पहचान लिये थे जो उनकी स्त्रियों के साथ इनमें आ घुसी। इस अंतर्भुक्तिकरण से दोनों की भाषाई पहचान और संस्कृति मिक्स भी हुई और वे अपने मूल कुनबे की एग्जेक्ट काॅपी न रहे। दूसरे शब्दों में भाषा में काफी समानता होते हुए भी उनकी खुद की भाषा भी हो गयी और जिनके साथ उनका सम्मिश्रण हुआ वे भी उस भाषाई परिवार का हिस्सा हो गये।

अब ऐसे में आप उस मूल कबीले को और उससे जुड़े लोगों को अलग से पहचान क्या देंगे जिससे उन्हें अलग इकाई के रूप में जाना जा सके? जाहिर है कि नाग ही कहना पड़ेगा.. आगे इस परिवार को चाहे वंश कह लें, या नस्ल कह लें लेकिन अर्थ वही परिवार आयेगा.. भाषाई पहचान के सहारे उस परिवार को अलग चिन्हित करना ठीक नहीं क्योंकि इससे सही परिणाम निकल कर सामने नहीं आयेंगे।
इसके सिवा दो बातें और भी गौर तलब हैं, जिनमें एक तो यह गर्व ग्रंथि है कि हम श्रेष्ठ और हमारा श्रेष्ठ, हम हम हैं और बाकी सब पानी कम हैं, हमने ही दुनिया को सारा ज्ञान दिया है और हमसे ही लोग दुनिया में जा कर बसे हैं जहां उन्होंने बड़ी-बड़ी उपलब्धियां हासिल की हैं.. खास कर आर्यों के सम्बंध में। यह एक तरह का मनोविकार है जो इतिहास को सही नजरिये से देखने में बहुत बड़ी अड़चन पैदा करता है। आप संस्कृत को सबसे प्राचीन बताओगे, अपनी सभ्यता को सबसे प्राचीन बताओगे लेकिन साबित करने में फेल हो जाओगे। सबूतों के मद्देनजर संस्कृत से प्राचीन तमिल साबित हो जायेगी और मजे की बात यह है कि यहाँ से हजारों किलोमीटर दूर सीरिया में 1380 ईसापूर्व हुई मितन्नी संधि में संस्कृत के शब्द मिल जायेंगे लेकिन भारत में ऐसे प्राचीन प्रमाण नहीं मिलते बल्कि शिलालेखों के रूप में या हड़प्पा में जो भाषा मिलती है वह संस्कृत नहीं है।

न पुरातात्विक महत्व का ऐसा कोई स्ट्रक्चर ही मौजूद है जो साबित कर सके कि हड़प्पा काल से पहले भारतीय भूभाग में कोई आधुनिक नगरीय सभ्यता थी जबकि मिस्र या मेसोपोटामिया में आपको आठ-दस हजार साल तक पुराने भी ऐसे स्ट्रक्चर मिल जायेंगे और हड़प्पा सभ्यता किसकी थी, यह अब तक साबित नहीं हो सका.. तो अपनी प्राचीनता या श्रेष्ठता आप साबित कैसे करोगे? सिर्फ जुबानी जमां खर्च के सहारे? आप ग्रंथों की बातों का हवाला दोगे तो वे बातें मान्य नहीं, उस ग्रंथ की कोई ऐसी काॅपी या किसी और माध्यम पर लिखे उसके श्लोक मान्य होंगे जो उसके कालखंड को ईसा से पीछे ले जा सकें.. है आपके पास ऐसा कुछ?
दुनिया भर में पुरातात्विक खोजों की इज्जत होती है, उन्हें अधिकृत इतिहास का हिस्सा बनाया जाता है लेकिन भारत इस मामले में नितांत फिसड्डी है और यहां का पुरातत्विक विभाग शायद सबसे घटिया है। यहां इस विभाग में आपको खरे धार्मिक मिलेंगे जो इस नजर से खोजें कम करते हैं कि उन्हें इतिहास जानना है बल्कि इस नजर से करते हैं कि पहले से सोचे जा चुके को उन प्रमाणों पर फिट कैसे करना है। 2005 में गुजरात के तट पर एक समुद्र में डूबे नगर जैसे कुछ अवशेष मिले थे तो यह कारीगर उसकी हकीकत जानने से ज्यादा उसे द्वारका साबित करने में इंट्रेस्टेड थे। यही वजह है कि यहां न उस स्तर की खोजें होती हैं और न उन खोजों को वह सम्मान मिलता है।
तो यह 'हम श्रेष्ठ हैं, हम विश्वगुरू हैं, हमसे ही दुनिया चली है' वाले भाव से किनारा कीजिये और समझिये कि तब जमीन पर कोई राष्ट्रीय सरहद नहीं थी और नाम बस भूभाग की पहचान के लिये ही थे। उस दौर में चीन के पूर्वी तट से लेकर मेडेटेरेनियन के आसपास तक और कैस्पियन सागर से फ्रांस जर्मनी तक अलग-अलग इंसानों की हजारों टोलियाँ फैली हुई थीं और अपनी-अपनी जगह सब अपने तरीके से विकास कर रही थीं। शुरुआती दौर झगड़ों और कब्जे का भी रहा और व्यापार के बहाने मेल-मिलाप का भी रहा जिससे न सिर्फ शब्द, भाषा, संस्कृति आपस में घुसपैठ करते रहे बल्कि देवताओं का भी मिश्रण हुआ और सृष्टि की रचना वाली अवधारणाएं भी प्रभावित हुईं।
यहां एक चीज यह भी समझिये कि भारत से भूमध्यसागर के धुर पश्चिमी किनारे तक यह जो कई धर्मों में कुछ मिलती-जुलती चीजें या नाम नजर आते हैं, इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि ऐसा इनके ईश्वरीय होने की वजह से है बल्कि यह व्यापारिक मेलजोल और अंतर्भुक्तिकरण (जंग, समर्पण, विजय और समझौतों से बना मिश्रण समझिये) के कारण हैं जिसे एकदम सटीकता से रोमन और ग्रीक्स (यूनानी) के आपसी गठजोड़ से समझ सकते हैं.. यूनानी उनसे काफी पुराने थे और उनके पास एक सशक्त ईश्वरीय अवधारणा के साथ ज्यूस, पोसाइडन, एथेना, हर्मीस जैसे ढेरों देवी देवता थे, जबकि उनके मुकाबले रोमन का कांसेप्ट थोड़ा अलग भी था और सीमित भी.. बाद में जब उन्होंने ग्रीस को कब्जाया तो उनके देवी देवताओं समेत पूरे कांसेप्ट को अडाप्ट कर लिया और अब दोनों का संयुक्त कांसेप्ट हो गया, और सारे देवी देवता मिल के एक कांसेप्ट का हिस्सा हो गये। कालांतर में यही ईसाइयों ने यहूदियों के साथ और मुसलमानों ने उन दोनों के साथ किया यानि उनके ईष्टों से लेकर उनकी प्रथा-परंपरायें सब इस्लाम का हिस्सा बन गयीं।

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