भारत जोड़ो यात्रा

 


भारत जोड़ो यात्रा: एक सार्थक पहल लेकिन उससे कुछ बदलेगा क्या?

फिलहाल एक कमज़ोर और असहाय से विपक्ष का नेतृत्व करते राहुल गांधी ने कन्याकुमारी से कश्मीर तक भारत जोड़ो यात्रा शुरु की है जो सत्ता के नियंत्रण में दरबारी भांड की भूमिका में पहुंच चुकी मेनस्ट्रीम मीडिया से भले नदारद हो लेकिन सोशल मीडिया जैसे माध्यम के ज़रिये काफी चर्चा पा रही है, इसमें कांग्रेस के पीआर मैनेजमेंट की मेहनत को श्रेय ज़रूर जाता है लेकिन स्वाभाविक तौर पर लोग ख़ुद भी दिलचस्पी ले रहे हैं, जो एक सकारात्मक पहल को मिलती उत्साहजनक प्रतिक्रिया कही जा सकती है और जिसके लिये शायद वर्तमान सत्ता के विरोध में खड़ा हर शख़्स घनघोर मायूसी के बीच थोड़ी राहत और थोड़ी ख़ुशी महसूस कर सकता है।

लेकिन यह भीड़ वोटों में नहीं बदलती, ऐसा कुछ हम बिहार चुनाव से पहले तेजस्वी के पीछे, और यूपी चुनाव में अखिलेश के पीछे देख चुके हैं। तो जब अंतिम परिणाम, जो निश्चित ही सत्ता परिवर्तन होना चाहिये— अगर वही रहता है तो मेरे जैसे किसी भी तटस्थ नागरिक को, जो वर्तमान सत्ता के हथकंडों से त्रस्त हो— उसे क्यों इस यात्रा का समर्थन करना चाहिये? यह मेरा सवाल नहीं है, यह मेरे जैसे उन करोड़ों लोगों की उलझन है जो दूर से इस यात्रा को देख रहे हैं लेकिन अपना स्टैंड नहीं क्लियर कर पा रहे। सबसे अहम सवाल तो यही है कि संघ और भाजपा ने समाज को इस हद तोड़-फोड़ कर रख दिया है, उसे मात्र एक यात्रा या फिर इस यात्रा से जुड़ने वाले लोग तो नहीं बदल सकते… ऐसे में मान लेते हैं कि किसी चमत्कार से सत्ता कांग्रेस/यूपीए के हाथ आ भी जाती है तो वे उन त्रुटियों, विसंगतियों, बिगाड़ों को कैसे मैनेज करेंगे जो इस सामाजिक सिस्टम में आ चुकी हैं?
कोई क्लियर वादा तो राहुल गांधी कर नहीं रहे, कोई भरोसा तो दिला नहीं रहे कि उनके हाथ सत्ता आते ही वे फलां-फलां बदलाव पर फोकस करेंगे। भले आदमी हैं, सौम्य हैं, सरल हैं, उदार हैं लेकिन टेढ़ी राजनीति में सीधे लोग फिट नहीं होते। आप नरेंद्र मोदी को लाख नापसंद करें और लाख झूठा कहें, लेकिन सत्ता पाने से पहले उन्होंने भारतीय जनमानस को एक क्लियर स्टैंड के साथ यह भरोसा दिलाया था कि वे सत्ता पाते ही ऐसा-ऐसा करेंगे। लोगों ने भरोसा करके सत्ता उन्हें सौंपी, भले वे अपने वादों पर खरे नहीं उतरे और पीआर एजेंसी, मीडिया, आईटीसेल की बदौलत अनगिनत झूठों और मिसलीडिंग सूचनाओं के सहारे अपनी छवि चमकाते, साम-दाम-दंड-भेद के सहारे अपनी सत्ता रिटेन करते रहे लेकिन वह सत्ता पाई उन्होंने जनता को भरोसा दिला कर ही थी कि मैं ऐसा-ऐसा करूंगा… क्या राहुल गांधी ऐसा कुछ करते दिख रहे हैं?

यह सब पर प्यार लुटाने वाला, सबको माफ कर देने वाला फंडा कम से कम राजनीति में तो नहीं चलता। शुद्ध हिंदी बेल्ट में भले मोदी को नायक मानने वालों का प्रतिशत सत्तर क्यों न हो, लेकिन पूरे भारत में तो ऐसा नहीं है। एक बड़ी आबादी उन्हें देश की दुर्दशा का जिम्मेदार और खलनायक मानने वाली भी है। यह एक ऐसे पिलर की तलाश में बिखरी और दुविधाग्रस्त भीड़ है, जो किसी सीधे-सादे, वर्तमान राजनीति में मिसफिट, उदार और सबको माफ कर देने वाले नेता के पीछे गोलबंद नहीं होने वाली, चाहे विपक्ष चुनाव पर चुनाव हारता रहे। एक फिल्म की कल्पना कीजिये जिसमें एक सशक्त विलेन पूरी फिल्म भर न सिर्फ आम जनता का जीना मुहाल किये रहा हो, बल्कि नायक को भी पूरी फिल्म भर सताता रहा हो और जब फिल्म का क्लाइमैक्स हो तो नायक अपना मौका बनने के बावजूद बड़ा दिल दिखाते उस विलेन को माफ कर दे… ऐसी फिल्म और ऐसा नायक भारतीय जनमानस को कभी नहीं पसंद आने वाले। क्या राहुल वैसे ही एक नायक नहीं लगते?
भाजपा का विजय रथ बहुसंख्यकवाद के बेस पर दौड़ रहा है, जो किसी भी लोकतंत्र की सबसे पापुलर थीम हो सकता है। उन्होंने धर्मभीरू और सदियों तक विदेशी आक्रमणकारियों के हाथों लुटी-पिटी जनता में गहरे तक व्याप्त हीनता को टार्गेट दिया और धर्म और गर्व के मिश्रण से तैयार एक ऐसे नशे की आपूर्ति की, जिसके व्यसन में लिप्त जूडिशियरी, ब्यूरोक्रेसी और समाज के अंतिम छोर पर खड़ा जन तक एक रोबोट सरीखा व्यवहार कर रहा है। ठीक है कि इस संक्रमण से निपटने की दिशा में राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा एक पहली कोशिश हो सकती है लेकिन आगे?

सबसे पहले तो उन्हें यह स्पष्ट करना चाहिये कि उनका गोल क्या है… अगर वे भारत के टूटे, बिखरे, कुंठित, घृणा से भरे समाज के बीच प्रेम, सौहार्द और एकता के बीज रोपने की कोशिश में लगे हैं, तो बिना सत्ता परिवर्तन यह कैसे संभव है? जब सत्ता में बैठे लोग ही इस बिखराव के सहारे सर्वाइव करने को मजबूर हैं, तो वे कैसे ऐसा होने देंगे? यहां तो सत्ता के शीर्ष पर बैठा व्यक्ति ही लोगों को कपड़ों के आधार पर पहचनवा कर समाज में अलग-थलग करवा रहा है— फिर ऐसे लोगों के पाॅवर में रहते कोई एकता कैसे संभव है?
अंततोगत्वा लक्ष्य सत्ता परिवर्तन ही होना चाहिये, बिना सत्ता और शक्ति पाये तो आप जमीन पर ऐसी दसियों यात्राएं कर डालिये, उससे इस टूटे, बिखरे समाज में कुछ नहीं बदलने वाला। आपके साथ जुड़ेंगे मात्र वही, जो पहले से आपके साथ हैं। नये लोगों को जोड़ने के लिये न सिर्फ उन्हें सत्ता परिवर्तन के रूप में अपना गोल क्लियर करना चाहिये, अपितु मेरे जैसे तटस्थ नागरिक के लिहाज से उन सभी बिंदुओं पर अपना स्टैंड भी क्लियर करना चाहिये— जो मुझे वर्तमान सत्ता के विरोध में खड़े होने पर मजबूर किये हैं।

अब उन बिंदुओं पर चर्चा करते हैं, जिनकी मैं बात कर रहा हूं… महंगाई या बेरोजगारी से लड़ने जैसे कालजयी मुद्दों से इतर, इनमें सबसे पहला प्वाइंट है आज के बिकाऊ नेता। इस साल यूपी विधानसभा के चुनाव में सपा अच्छी फाईट में थी, जीतने की पोजीशन में थी लेकिन नहीं जीत पाई। 
सवाल यह है कि जीत भी जाती तो कितने दिन सपा की सरकार चलती जब सामने वाले ईडी, सीबीआई का डर और बेशुमार पैसों की ताक़त के साथ पूरी बेशर्मी से जीते हुए विपक्षी विधायक तोड़ कर अपनी सरकार बना लेने से गुरेज़ नहीं करते— जैसा उन्होंने कर्नाटक, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में कर के दिखाया।

आदमी के वोट की वैल्यू क्या है, जब जीता हुआ विधायक बिकने में देर नहीं लगाता— क्या राहुल गांधी लोगों को यह यक़ीन दिला पायेंगे कि उनके वोट की भी वैल्यू है? मान लीजिये लोग भाजपा से त्रस्त होने की दशा में कांग्रेस की राज्य या केंद्र में सरकार बनवा भी दें तो कितने दिन टिकेंगी वे सरकारें— राजनीति के बाज़ार में सबसे बिकाऊ तो कांग्रेसी ही हैं। क्या राहुल भरोसा दिलायेंगे कि सत्ता उनके हाथ आते ही वे ऐसे सभी पाला बदलने वाले विधायकों/सांसदों के साथ पूरी बेरहमी से पेश आयेंगे और उनसे उस बिक्री की एवज में हुई कमाई ज़ब्त करके उन्हें जेल पहुंचायेंगे और आगे के लिये सुनिश्चित करेंगे कि भविष्य में कोई विधायक/सांसद ऐसा न कर पाये?
सत्ता में बैठे लोगों का बड़ा सीधा सा फंडा है, वे सरकार बनाते हैं, कुछ बड़े और खास पूंजीपतियों को अंधाधुंध लाभान्वित करते हैं, जिसमें एक मोटा कमीशन बतौर इलेक्टोरल बांड उन्हें मिलता है और उस पैसे का इस्तेमाल वे उन जगहों पर विधायक खरीदने में करते हैं जहां जनता सीधे उनकी सरकार नहीं बनाती। क्या राहुल मेरे जैसे लोगों को यह यक़ीन दिलायेंगे कि सत्ता उनके हाथ आने पर वे इस चेन को तोड़ेंगे और ऐसे सभी केसेज की इनक्वायरी करा के, लाभान्वित होने वाले पूंजीपतियों के खिलाफ सख्त एक्शन लेंगे या फिर इलेक्टोरल बांड्स का रुख़ भाजपा से कांग्रेस की तरफ़ करने के बाद उन्हें ओब्लाईज करने के लिये उनकी सारी पिछली धांधलियों की तरफ़ से आंख मूंद लेंगे?

मेरा एक प्वाइंट है मीडिया… यह प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक, दोनों सेक्शन में सरकार से मिलने वाले विज्ञापनों के पीछे इस कदर एकांगी हो चुका है कि इनके पेश किये कंटेंट में खबर के बजाय बाकी सबकुछ होता है, यह ख़बरें देने वाले स्रोत नहीं बल्कि अघोषित रूप से सरकार के प्रवक्ता बन चुके हैं जहां विपक्ष के लिये जीरो स्पेस है। 
इनकी क्या वैल्यू बची है, यह इन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मिली रैंकिंग से समझा जा सकता है। एक विशाल दर्शक/पाठक वर्ग के अवचेतन से खेलने, उनके मन में अपनी अवधारणाएं रोपने और उस जनमत को सत्ता के पक्ष में मोड़ने में यह अहम भूमिका निभाते हैं। सवाल यह है कि सत्ता अगर राहुल गांधी के हाथ आती है तो वे इस ट्रैक को कैसे चेंज करेंगे?

अब तक दलालों जैसी भूमिका निभाने वाले चैनलों/अखबारों/पत्रकारों के खिलाफ जीतने की स्थिति में वे क्या एक्शन लेने वाले हैं? क्या वे हमें यह भरोसा दिलायेंगे कि सत्ता परिवर्तन होने के बाद कोई कमेटी इन सबकी जांच करेगी कि इनकी दिखाई, छापी खबरों ने समाज में कैसा नकारात्मक प्रभाव पैदा किया और ज़मीन पर पैदा हुए फसादों में इनकी क्या भूमिका रही, कितने लोगों को अपनी जान इनके फैलाये ज़हर की वजह से गंवानी पड़ी और उस आधार पर न सिर्फ इनके खिलाफ़ सख़्त कानूनी एक्शन लिया जायेगा— भले इसके लिये कोई नया कानून, बाज़रिया अध्यादेश क्यों न बनाना पड़े… बल्कि इन्होंने इस गुलामी के बदले जो आर्थिक लाभ कमाया है, उस धन की रिकवरी भी बतौर जुर्माना इनसे की जायेगी?
एक जो हम जैसों की सबसे बड़ी शिकायत है, वह सरकारी संपत्तियों को औने-पौने दामों में अपने उन पूंजीपति साथियों को सौंपना है, जो बैकडोर से एक मोटा कमीशन इन्हें बतौर चंदा रिटर्न गिफ्ट देते हैं। यह कोई नये कारोबार नहीं पैदा कर रहे, नये उद्योग नहीं लगा रहे कि लोगों के लिये लाखों नई नौकरियों का सृजन हो। बैंकों से लोगों का पैसा बतौर कर्ज उठा कर अपनी सांठ-गांठ के चलते औने-पौने दामों में सरकारी संपत्तियों को खरीद रहे और अपनी बढ़ती नेटवर्थ के भरोसे नये कीर्तिमान गढ़ रहे— लेकिन इससे आम लोगों का क्या फायदा हो रहा? क्या राहुल यह भरोसा दिलायेंगे कि सत्ता परिवर्तन के बाद वे इन सभी संपत्तियों का पुनः राष्ट्रीयकरण करेंगे और इस सिलसिले में कोई प्रभावी क़दम उठायेंगे?

मेरे जैसा हर सोशल मीडिया यूज़र त्रस्त है इन माध्यमों पर फैली गंदगी से। यहां सत्ता समर्थक आम लोग ही नहीं, पत्रकार और अन्य सेलिब्रिटी तक धड़ल्ले से फेक न्यूज़, मिसलीडिंग सूचनाओं और हेट स्पीच का बेरहम और भरपूर इस्तेमाल करते हैं, बिना किसी डर-झिझक के और उनके खिलाफ किसी तरह का एक्शन नहीं होता, कोई कंपलेंट करे, तो भी। इन बातों का असर उन तमाम यूजर्स को मिसगाईड करके अपने पाले में करने के लिये किया जाता है जिनका अब तक इनके पक्ष में झुकाव न हुआ हो, या जो अनिश्चय की स्थिति में हों। 
यह एक खतरनाक ट्रेंड है, जो आज समाज के विघटन में अहम भूमिका निभा रहा है। क्या राहुल गांधी सत्ता परिवर्तन की स्थिति में कोई ऐसा सख्त कानून बनायेंगे जहां कोई यूज़र इन मंचों का ऐसा इस्तेमाल न कर सके और सभी यूज़र्स की एक जिम्मेदारी तय हो, सबके लिये एक नियम तय हो?

एक शिकायत हम जैसे स्वर्ण बहुसंख्यक बाउंड्री से बाहर खड़े लोगों की, इस जूडिशियल सिस्टम, ब्यूरोक्रेसी और अन्य सरकार द्वारा संचालित सभी संस्थानों में व्याप्त सवर्ण और उसमें भी खासकर ब्राह्मण वर्चस्ववाद से है, जिसके रहते नौकरी या न्याय दोनों पाना हमारे लिये टेढ़ी खीर है। खुद के लिये तो ईडब्लूएस, लेटरल एंट्री और न्यायिक सिस्टम में प्रिवलेज्ड जैसी कंडीशन बना रखी है और दूसरों के लिये इंटरव्यू में एक नंबर, एनएफएस और उल्टे-सीधे केसों में भी सालों-साल ज़मानत न मिलने जैसे झमेले बना रखे हैं। हालांकि यह स्थिति तो मौजूदा सत्ता से पहले की है, लेकिन अब पूरी बेशर्मी से अपने निकृष्टतम रूप में पहुंच चुकी है। क्या सत्ता प्राप्ति के बाद वे इस स्थिति की तरफ़ भी ध्यान देंगे?

एक सामान्य नागरिक के तौर पर मेरा किसी भी पार्टी से जुड़ाव नहीं, मैं तो मुद्दों के आधार पर किसी को भी वोट और सपोर्ट कर सकता हूं तो किसी भी यात्रा/इवेंट/मिशन को सपोर्ट करने से पहले मैं यह ज़रूर देखूंगा कि मेरे मुद्दे कनसिडर हो रहे या नहीं— वर्ना आपको लगता है कि राहुल की सादगी, सौम्यता, स्माइलिंग फेस और पैदल चल कर देश नापने में की गई मेहनत के सहारे ही कोई बड़ा परिवर्तन पैदा हो जायेगा तो आपको शुभकामनाएं। उत्सवप्रेमी देश है, इस भारत जोड़ो यात्रा को भी उत्सव की तरह एंजाय कर लेगा लेकिन अंतिम परिणाम वही ढाक के तीन पात रहेंगे। भारतीय राजनीति एक सीधे-सादे बबुए के रूप में तो नहीं साधी जा सकती। एक कड़क प्रशासक के अंदाज़ में आपको लोगों को यह भरोसा दिलाना ही रहता है कि आप क्या डिलीवर करने वाले हैं— जैसा मोदी ने किया। जीतने के बाद आप क्या करते हैं, वह बाद का इशू है, लेकिन जीतने के लिये लोगों में जो भरोसा बनाना है, वह सिर्फ यात्रा से नहीं बल्कि ऐसे सभी मुद्दों पर एक क्लियर स्टैंड से बनेगा।

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